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________________ सम्यग्दर्शन न होने से धरणेन्द्र देव की विभूति देखकर धरणेन्द्र होने का निदान किया। इसकारण चारित्र से || भ्रष्ट होकर धरणेन्द्र हुए। अपराजित और अनन्तवीर्य - दोनों भाई विदेह क्षेत्र में बलदेव व वासुदेव रूप में प्रसिद्ध हुए। तीन खण्ड की उत्तम विभूति उन्हें प्राप्त हुई थी। एक बार अपराजित बलदेव की पुत्री शादी के लिए सजकर आयी कि इतने में ही आकाश से एक देवी उतरी और सुमति से कहने लगी - "हे सखी ! सुन, मैं स्वर्ग की देवी हूँ, तू भी पूर्वभव में देवी थी और हम दोनों सहेलियाँ थीं। एक बार हम दोनों नन्दीश्वर जिनालयों की पूजा करने गये थे, पश्चात् हम दोनों ने मेरु जिनालयों की भी वन्दना की; वहाँ एक ऋद्धिधारी मुनि के दर्शन किए और धर्मोपदेश सुनकर हमने उन मुनिराज से पूछा कि 'हे स्वामी! इस संसार में हम दोनों की मुक्ति कब होगी?' तब मुनिराज ने कहा था - "तुम चौथे भव में मोक्ष प्राप्त करोगी।" देवी ने आगे कहा - "हे सुमति ! यह सुनकर हम दोनों अति प्रसन्न हुईं थीं और हम दोनों ने मुनिराज के समक्ष एक-दूसरे को वचन दिया था कि हम में से जो पहले मनुष्यलोक में अवतरित हो, उसे दूसरी देवी संबोधकर आत्महित की प्रेरणा दे, इसलिए हे सखी! मैं स्वर्ग से उस वचन का पालन करने आयी हूँ। तू इन विषय-भोगों में न पड़कर संयम धारण कर और आत्महित कर ले।" देवी की यह बात सुनते ही भावी तीर्थंकर के जीव अपराजित बलदेव की वीरपुत्री सुमति को अपने पूर्वभव का स्मरण हुआ और उसे वैराग्य हो गया। उसने सात सौ राजकन्याओं के साथ जिनदीक्षा ग्रहण की और आर्यिकाव्रत का पालन करके स्त्रीपर्याय छेदकर तेरहवें स्वर्ग में देव हुआ। वीर पुत्री सुमति की इस वैराग्य की घटना से अपराजित बलभद्र का चित्त भी संसार से उदास हो गया। यद्यपि उनको संयम भावना जाग्रत हुई, किन्तु अपने भ्राता अनन्तवीर्य के प्रति तीव्र स्नेह के कारण वे संयम धारण न कर सके। ऐसा महान वैराग्य प्रसंग प्रत्यक्ष देखकर भी अनन्तवीर्य वासुदेव को किंचित् भी वैराग्य नहीं हुआ; उसका जीवन दिन-रात विषय भोगों में ही आसक्त रहा । तीव्र विषयासक्त के कारण सदा आर्त- ॥ १५ +ESCREE FB
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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