SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०९ || देशव्रत धारण किए - ऐसे उन अमिततेज विद्याधर को अपने पूर्वभव जानने की जिज्ञासा हुई। उन्होंने | विनयपूर्वक पूछा - " हे सर्वज्ञ देव! मुझे और इस श्री विजय को परस्पर में ऐसा स्नेह क्यों है ? तथा इस अशनिघोष ने मेरी बहिन (सुतारा) का अपहरण क्यों किया ?" श ला का पु रु ष pm IF 59 उ रा र्द्ध दिव्यध्वनि के निमित्त से सहज समाधान हुआ - “हे अमिततेज! तू पूर्वभव में श्रीषेण राजा था, तू वहाँ सत्पात्रदान के प्रभाव के फल से मरकर भोग भूमि में उत्पन्न हुआ। पश्चात् श्रीप्रभदेव हुआ और वहाँ से चयकर अमिततेज हुआ है। यह विजयश्री का जीव तेरी अनन्दितारानी था। भोगभूमि में यह तेरे साथ था । | देव के भव में भी तेरे साथ विमलप्रभ देव था और वहाँ से यहाँ आकर यह तेरा बहनोई श्रीविजय हुआ है । तेरी बहिन सुतारा पूर्व में सत्यभामा नाम की ब्राह्मण कन्या थी, तब यह अशनिघोष का जीव उसका पति (कपिल) था, परन्तु सत्यभामा उसे छोड़कर श्रीषेण के भव में तेरी शरण में आ गई। वह सत्यभामा | पात्रदान का अनुमोदन करके भोगभूमि में तथा स्वर्ग में भी तेरे साथ थी । यहाँ पूर्वभव के स्नेह के कारण यह तेरी बहिन हुई है। पूर्वभव के मोह के कारण अशनिघोष ने सुतारा का अपहरण किया; परन्तु अन्त में | तुझसे भयभीत होकर वह भी यहाँ धर्मसभा में आया। उसके पीछे तू भी यहाँ आया और सम्यग्दर्शन प्राप्त | करके मोक्ष की साधना प्रारंभ की।" इसप्रकार पूर्वभव बताकर केवली ने कहा- "हे अमिततेज ! अब आत्मसाधना में उन्नति करते-करते नौंवे भव में तुम्हारा आत्मा पंचम चक्रवर्ती होगा एवं सोलहवाँ तीर्थंकर होकर मोक्ष प्राप्त करेगा और तब यह श्रीविजय तुम्हारा भाई होकर चक्रायुध गणधर होगा। शेषभवों में भी वह तुम्हारे साथ ही रहेगा । " केवली के मुख से अपना-अपना भविष्य जानकर सभी जीव आनन्दित हुए और उनका मोक्षमार्ग में अग्रसर होने का पुरुषार्थ तथा उत्साह जाग्रत हो गया । अशनिघोष को अपने पूर्वभव की कथा सुनकर जातिस्मरण हुआ और जातिस्मरण से पूर्वभव का ज्ञान | होने से उसे संसार से वैराग्य हो गया तथा उसने दीक्षा ले ली। सुतारा देवी तथा ज्योतिप्रभा भी अपने पूर्वभव ती र्थं क र शा न्ति ना थ पर्व १५
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy