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को निद्रा, आलस्य नहीं होता तथा वज्र शरीरी होते हैं । भोगभूमियाँ जीवों को जैसा सुख है वैसा चक्रवर्ती | को भी नहीं होता । जन्म के बाद २१, ३५ या ४९ दिन में ही पूर्ण युवा हो जाते हैं । मृत्यु के समय भी उन्हें ला कोई पीड़ा नहीं होती । मात्र छींक या जमाई आने पर वे सुखपूर्वक प्राण त्याग देते हैं और सौधर्म स्वर्ग में जाते हैं।
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यद्यपि कल्पवृक्षों से सबप्रकार की भोग सामग्री उपलब्ध होती है; परन्तु वहाँ से मुक्ति नहीं होती, अत: ज्ञानी भोगभूमि के भोग की भावना नहीं भाते; उन्हें तो संयम धारण करने की प्रबल भावना होती है ।"
भोगभूमि का उपर्युक्त वर्णन मात्र जानकारी के लिए लिखा गया है, न कि वहाँ के आकर्षण के लिए। | ऐसे स्वर्ग और भोग- भूमियों में तो यह जीव अनन्तबार जन्म लेकर भी संसारी ही बना हुआ है । इसलिए कहा जाता है कि आत्मार्थीजन इन विषयों से अल्पराग भी नहीं करते ।
शान्तिनाथ भगवान का जीव नवें पूर्वभव सौधर्म स्वर्गलोक से चयकर अपने आठवें पूर्वभव में | अमिततेज नामक विद्याधर हुआ, अबतक उन्हें सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ था । उससमय भरतक्षेत्र में ग्यारहवें तीर्थंकर का तीर्थ प्रवर्तन हो रहा था । उससमय भगवान शान्तिनाथ के जीव ने भगवान विजयप्रभु के | समवसरण में धर्मोपदेश श्रवण किया ।
दिव्यध्वनि में विजय प्रभु ने कहा - " हे जीवों! आत्मा ज्ञानस्वरूप है, क्रोध उसका स्वभाव नहीं है । | जीव का स्वभाव शान्ति एवं ज्ञानानन्दमय है । अन्तर में चैतन्य परमतत्त्व है । उस स्वतत्त्व की महिमा का चिन्तन करने से क्रोधादिभाव शान्त हो जाते हैं और सम्यक्त्व आदि भाव प्रगट होते हैं । "
अमिततेज को प्रभु का उपदेश सुनकर अन्तर्मुख दृष्टि जाग्रत हो गई, उसकी चेतना एकदम शान्त होकर | कषायों से भिन्न हो गई और अन्तर में अपने परमात्मतत्त्व का अनुभव करके उसीसमय उसने अपूर्व सम्यग्दर्शन प्रगट किया; इसप्रकार आठ भव पूर्व तीर्थंकर शान्तिनाथ की आत्मसाधना प्रारंभ हुई।
तत्पश्चात् सम्यक्त्व प्राप्ति से जिनके चैतन्य प्रदेशों में अपूर्व आनंद तरंगे उछलने लगीं और जिन्होंने
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