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तीर्थंकर धर्मनाथ प्रभु का धर्मोपदेश सुनकर कितने ही जीव तुरन्त संसार से विरक्त होकर मुनि हो गये, कितने ही जीव सम्यक्त्वसहित व्रत धारण करके श्रावक हुए... अरे! सिंह, शशक, बैल, बन्दर, सर्प, हाथी कितने ही तिर्यंच जीव भी आत्मज्ञान सहित व्रत धारण करके श्रावक हो गये । इन्द्रादि देव भी जो दशा रु (पंचम गुणस्थान) प्रगट नहीं कर सके वह दशा तिर्यंच जीवों ने प्रगट कर ली। भगवान ने गुजरात, सौराष्ट्र, ष बिहार, बंगला, हिमाचल प्रदेश, नेपाल, श्रीलंका, ब्रह्मदेश, विन्ध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक उ और आन्ध्र में - सर्वत्र धर्मविहार किया उन गगनविहारी प्रभु को कोई नदी या पर्वत बीच में बाधक नहीं
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पात्रतावाले जीव को उसकी भूमिका के अनुसार देव-गुरु-धर्म की श्रद्धा अवश्य होती है तथा सात व्यसनों का एवं अभक्ष्य का त्याग तो होता ही है ।
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होते थे ।
केवलज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् भगवान धर्मनाथ ने ढाई लाख वर्ष तक तीर्थंकर के रूप में विचरण | किया। अन्त में, शाश्वत मुक्तिधाम सम्मेदाचल पधारे और एक मास तक वहाँ स्थिर रहे । यद्यपि प्रभु का | उपयोग तो स्थिर था ही, अब उनके योग भी स्थिर होने लगे । चैत्र शुक्ला चतुर्थी; अब प्रभु का संसार मात्र | दो घड़ी शेष रहा था... बस! मोक्ष की तैयारी हो गई। प्रभु की आयु तो एक मुहूर्त की ही शेष थी; परन्तु | अन्य तीन अघाति कर्म लम्बी स्थिति के थे, इसलिए प्रभु ने आत्मप्रदेशों के लोकव्यापी विस्तार द्वारा उन | कर्मों की स्थिति को तोड़कर आयु जितना ही कर डाला । क्षणमात्र में आयुसहित चारों अघाति कर्मों का क्षय कर निष्कर्म दशा को प्राप्त हुए ।
प्रभु धर्मनाथ के मोक्ष प्राप्त करते ही इन्द्रादि देवों ने तथा सुधर्म आदि राजा-महाराजाओं ने उस मुक्त आत्मा की स्तुति करके मोक्षकल्याणक महोत्सव मनाया।
प्रत्येक भला काम सबसे पहले हमें अपने घर से ही प्रारम्भ करना चाहिए। पृष्ठ- २२
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