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|| तो उनके जैसा होना पड़ेगा; क्योंकि वह ज्ञानगोचर है, वचनगोचर नहीं है। अहा, इन्द्र जिनकी सेवा करने आये और इन्द्रलोक की सामग्री लाकर भक्तिसहित पूजा करे, उन परमात्मा की महिमा का क्या कहना?
देवों के दुन्दुभिवाद्य अति मधुर स्वर में जगत के समक्ष जिनेन्द्र महिमा की प्रसिद्धि कर रहे थे कि अरे | जीवो! देखो...देखो...! कहाँ वह समवसरण की आश्चर्यकारी दिव्यविभूति ! और कहाँ वह जिनपरमात्मा | की नि:स्पृहता! जगत में कहाँ है ऐसा ज्ञान और कहाँ है ऐसी वीतरागता ! तुम वीतरागी शान्ति का मार्ग जानना चाहते हो तो यहाँ आओ और इन सर्वज्ञ-वीतराग परमात्मा की सेवा-उपासना करो। समवसरण में आकर भव्य जीव जहाँ उन जिनेश्वर की परम शान्त मुद्रा का अवलोकन करते वहाँ मुग्ध हो जाते; तथा | दिव्यध्वनि में सुनते मुमुक्षु जीवों की दृष्टि अन्तर्मुख हो जाती और अपने परम निधान को देखकर वे | कल्पनातीत तृप्ति-शान्ति एवं आनन्द का अनुभव करते । पश्चात् वे जीव उल्लासपूर्वक कहते हैं - "अहा, हे जिनेश्वर! हमें आपके शासन का रंग लगा है, उसमें अब कभी भंग नहीं पड़ने देंगे; प्रभो! आपके बतलाये धर्म के सिवा अन्य किसी धर्म को अपने मन-मन्दिर में स्थान नहीं देंगे। अब हमें भवभ्रमण नहीं हो सकता; अब हमारी मोक्ष की साधना प्रारम्भ हो गई और हम आपके परिवार के हो गये; आपकी भांति हम भी अल्पकाल में परमात्मा होंगे और मोक्ष प्राप्त करेंगे।"
आत्मा के स्वरूप का वैभव बतानेवाली वह दिव्यवाणी वास्तव में आश्चर्यकारी थी। उनका समवसरण पृथ्वी से बीस हजार सीढ़ियों जितना ऊपर था और उस समवसरण में विशाल मानस्तम्भ, मन्दिर, वापिकायें, कल्पवृक्ष, पर्वतों की रचना और बारह सभाओं में लाखों-करोड़ों देव, मनुष्य, तिर्यंच बैठते थे, तथापि उस समवसरण के नीचे पृथ्वी का कोई आधार नहीं था अथवा कोई खम्भा आदि नहीं था और उस समवसरण में अद्भुत गंधकुटी है; परन्तु तीर्थंकर देव तो उसका भी स्पर्श किये बिना निरालम्बीरूप से विराजते हैं। अद्भुत...सचमुच आश्चर्यजनक!! स्वयंभू सर्वज्ञ हुए आत्मा ने भी अपने ज्ञानसुख के लिए राग का और इन्द्रियों का अवलम्बन छोड़ दिया और निरालम्बी हो गये...वहाँ उनका शरीर भी निरालम्बी होकर आकाश में स्थित हुआ। वाह प्रभो! आपका स्वाश्रित मार्ग! वास्तव में प्रशंसनीय है।