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दीक्षा के समय भी इन्द्र ने प्रभु का अभिषेक तो किया, किन्तु ताण्डव नृत्य नहीं किया, क्योंकि प्रभु के | वैराग्य से प्रभावित होकर उसका चित्त भी वैराग्य से भीग गया था। प्रभु ने सर्वजीवों के प्रति प्रशान्त रस ला से झरती हुई अमृतदृष्टि से देखा, सर्वत्र राग-द्वेष का शमन करके समभाव धारण किया। || फिर अनित्य आदि बारह भावनाओं के चिन्तन में तत्पर महाराज धर्मनाथ वनगमन हेतु पालकी में विराजमान हुए। | पालकी में आरूढ़ होकर प्रभु रत्नपुरी के मनोहर वन में पहुँचे । वस्त्राभूषण छोड़े और केशों का लुंचन किया। सिद्धों को वन्दन करके प्रभु आत्मध्यान में एकाग्र हुए और शुद्धोपयोग द्वारा रत्नत्रय की वृद्धि करके मुनि बने । अन्य कितने ही राजा तथा प्रजाजन भी वैराग्य प्राप्तकर प्रभु के साथ दीक्षित हो गये; कितने ही | धर्मात्मा मनुष्य तथा तिर्यंचों ने भी उससमय श्रावक के देशव्रत धारण किये और कितने ही जीव यह दृश्य देखकर विषयों से तथा राग से भिन्न आत्मा के शान्तस्वरूप को पहिचान कर सम्यग्दृष्टि हुए। चारों ओर धर्म का प्रभाव फैल गया; रत्नपुरी मानों धर्मपुरी बन गई। ___भगवान का आज ही जन्म हुआ हो इसप्रकार वे निर्वस्त्र एवं निर्विकार थे तथापि वीतरागता से अद्भुत शोभायमान हो रहे थे। भव्यजीवों ने देखा कि जीव की सच्ची शोभा बाहा अलंकारों द्वारा नहीं; किन्तु सम्यक्त्वादि वीतरागभाव द्वारा ही है। मुनिराज धर्मनाथ जब ध्यानयोग में स्थिर होते थे, तब देखनेवालों को ऐसा लगता था कि क्या यह भगवान की मूर्ति है ?
अरे, उन शान्त मुनिराज के समीप सिंह या सर्प जैसे पंचेन्द्रिय जीव अपना दुष्टभाव छोड़कर, प्रभु के निकट शान्त एवं अनुकूल वर्तन करने लगे। धर्म मुनिराज यद्यपि बोलते नहीं थे, तथापि सबको मोक्षमार्ग समझाते थे; स्वयं प्रयोग से साक्षात् मोक्षमार्ग दर्शाते थे; वे स्वयं मोक्षमार्ग थे।
इसप्रकार स्वानुभव की चैतन्य मस्ती में झूलते-झूलते करीब एक वर्ष तक विहार के पश्चात् प्रभु धर्मनाथ मुनिराज पुनः रत्नपुरी के उसी दीक्षावन में पधारे और ध्यान योग में स्थिर हुए। उनके शुद्धोपयोग की धारा एकदम वृद्धिंगत होने लगी। उन्होंने अपूर्व शुक्लध्यान द्वारा क्षपकश्रेणी में प्रवेश किया और पंचम
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