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अद्भुत श्रृंगार किया था। वे रात्रि को चन्द्रमा के प्रकाश में महल की छत से रत्नपुरी की अनुपम शोभा निहारते हुए अपने जीवन का विचार कर रहे थे...इतने में अचानक उल्कापात हुआ, उल्कापात का निमित्त पाकर महाराज के चित्त में भी वैराग्य की बिजली कौंध गई, दिव्य चेतना का चमत्कार हुआ।
उनका आत्मा पुकार उठा - "अरे, अपने शुद्ध आत्मा को जानकर भी अब उसे इस संसार के कारागृह | में पड़ा हुआ कैसे देखा जा सकता है ? अब मैं अपने आत्मा को संसाररूपी कारागृह से शीघ्र ही छुड़ाऊँगा। मेरा आत्मा भवभ्रमण कर-करके बहुत थक गया है, अब तो बस, इस भवचक्र का अन्त करके, मोक्षपुरी में जाकर सदाकाल-शाश्वत सिद्धमुख में रहना है; उस सिद्धपद की साधना पूर्ण करने हेतु मैं मुनिदशा || अंगीकार करूँगा। यद्यपि तीर्थंकर प्रकृति होने से इसी भव में मोक्ष निश्चित है, किन्तु उससे क्या | शुद्धोपयोगी होकर स्वरूप में लीन होऊँगा तभी तो केवलज्ञान होगा; कहीं तीर्थंकर प्रकृति मुझे केवलज्ञान नहीं देगी। उसका और मेरा क्या संबंध? हममें अत्यन्त भिन्नता है।" ऐसा वैराग्य चिन्तन करते-करते प्रभु को जातिस्मरण ज्ञान हुआ। पूर्वभव में आकाश में चन्द्रग्रहण देखकर वैराग्य हुआ था और इस भव में आकाश से खिरते हुए तारे को देखकर वैराग्य हुआ। इसप्रकार जन्मदिन के उत्सव के समय वैराग्य प्राप्त करके धर्मनाथ प्रभु दीक्षा लेने को तैयार हुए; राजमहल से तपोवन में जाने को और रागी से वीतरागी होने को तत्पर हुए; प्रभु ने जिनदीक्षा ग्रहण करने का निश्चय किया। उनकी दीक्षा का निश्चय जानकर पंचम स्वर्ग से लौकान्तिक देवों ने आकर स्तुति करते हुए कहा -
"हे देव! आप साक्षात् धर्म है, आप दीक्षा हेतु जो वैराग्य चिन्तन कर रहे हैं, वह मात्र आपको ही नहीं; अपितु जगत के भव्यजीवों को भी कल्याणकारी है। आपकी जिनदीक्षा मोहशत्रु का सर्वनाश करने के लिए अमोघ कृपाण है। आपकी यह दीक्षा आपको तथा जगत को रत्नत्रय-निधान प्राप्त करायेगी; हम भी उस | धन्य अवसर की भावना भाते हैं और अनुमोदन करते हैं।
इसप्रकार स्तुति करके वे देव ब्रह्मस्वर्ग में चले गये। उसीसमय इन्द्र महाराज धर्मनाथ भगवान का दीक्षा || कल्याणक मनाने के लिए 'नागदत्ता' नाम की दिव्य पालकी लेकर आ पहुँचे । जन्मकल्याणक की भांति | १४