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धर्मकुमार धीरे-धीरे बड़े होने लगे। नन्हें से पुत्र को सुप्रभा माता जब गोद में लेतीं तब उनके स्पर्शसुख की तृप्ति से क्षणभर उनके नेत्र मुंद जाते और कभी-कभी तो उन बाल - तीर्थंकर के स्पर्श सुख के साथ अन्तर में चैतन्य स्पर्श के अतीन्द्रिय सुख का स्वाद भी आ जाता था। नन्हा धर्मकुमार भी आनन्दित होकर माता के हाथ का चुम्बन कर लेता और हंस-हंसकर उन्हें अनुपम सुख देता था । भी को पुत्र चूमचूमकर वात्सल्य का स्रोत बहाती थीं । वे बाल- तीर्थंकर मात्र माता की आँखों के नहीं; अपितु समस्त | नगरजनों के भी ध्रुवतारे थे।
धर्मकुमार को पूर्वभव से ही आत्मज्ञान था, अवधिज्ञान था; उनकी बुद्धि सर्वविषयों में पारंगत थी । अब उन्हें कौन-सी विद्या पढ़ना बाकी थी जो दूसरे गुरु उन्हें पढ़ाते ? हाँ एक कैवल्यविद्या अधूरी थी; परन्तु उसके लिए तो वे स्वयं ही अपने गुरु थे, स्वयंबुद्ध थे।
धर्मकुमार अपनी समान आयु के बालकों के साथ जब खेलते, क्रीड़ा करते; तब उनकी आनन्दमय चेष्टाएँ देखकर मोर भी हर्षित हो पंख फैलाकर नाच उठते; हिरण और खरगोश भी निर्भयता से निकट आकर उछल-कूद करने लगते; हाथी का बच्चा उन बालकुंवर को अपनी सूढ़ से उठाकर मस्तक पर बैठाता और सूंढ में झुलाता था। यह देखकर वृक्षों पर बैठे हुए बन्दर चिल्ला-चिल्लाकर आनन्द से कूदते थे। नन्हीं| सी देवियाँ उन्हें हाथों पर बिठाकर झुलाती और इस बहाने बालप्रभु का स्पर्श पाकर अनुपम आनन्द का अनुभव करती थीं।
महाराजा धर्मनाथ की आयु दस लाख वर्ष की थी; दो लाख पचास हजार वर्ष की आयु में रत्नपुरी | के राजसिंहासन पर उनका राज्याभिषेक हुआ । पाँच लाख वर्ष तक धर्म की प्रधानता सहित भली-भांति | राज्य का संचालन किया। समस्त राजा उनका सम्मान करके उत्तम भेंट देते थे । उन्हें कहीं युद्ध नहीं करना | पड़ा, शान्तिपूर्वक राज्य किया । उनकी छत्रछाया में प्रजाजन सर्वप्रकार से सुखी थे ।
धर्मकुमार को राजभोग दशा में आयु के सात लाख पचास हजार वर्ष बीत गये। एकबार माघकृष्णा | त्रयोदशी को उनके जन्मदिन का भव्य उत्सव मनाने की तैयारियाँ चल रही थीं, देवों ने आकर रत्नपुरी का
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