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मूलगुणों के विभिन्न कथनों का समन्वय - विक्रम की दूसरी सदी से उन्नीसवीं सदी तक जिनागम में जो विविध रूपों में अष्ट मूलगुणों की चर्चा होगी, उनमें से पुरुषार्थसिद्धयुपाय एवं रत्नकरण्ड श्रावकाचार | में उल्लिखित मद्य - मांस-मधु व पंच उदुम्बर फलों के त्याग तथा मद्य-मांस-मधु व पाँचों पापों के स्थूल त्याग रूप अष्टमूलगुण ही अधिक प्रचलित होगा; क्योंकि जनसाधारण में चरणानुयोग के ग्रन्थों में ये दोनों ग्रन्थ ही सर्वाधिक स्वाध्याय व पठन-पाठन में रहेंगे। दूसरे, जहाँ हिंसा के त्याग का नियम ले लिया गया हो, वहाँ कोई हिंसा के आयतन रात्रिभोजन, अनछना जल आदि का उपयोग भी कैसे कर सकता है ? अतः अन्य मनीषियों द्वारा प्रतिपादित विविध मूलगुण भी इन्हीं में अन्तर्गर्भित हो जाते हैं । इसकारण वे अचर्चित रह जायेंगे ।
पुराण साहित्य में सर्वाधिक पढ़े जानेवाले पद्मपुराण, महापुराण एवं हरिवंश पुराणों में आगत श्रावकाचार | के प्रकरण में अष्ट मूलगुणों की जो चर्चा आयेगी, वहाँ भी देशकाल की परिस्थितियों के अनुसार मद्यमांस-मधु के त्याग के साथ जुआ, रात्रि भोजन, वेश्या संगत एवं परस्त्री रमण के त्याग को भी मूलगुणों में विशेषरूप से उल्लेख कर दिया जायेगा ।
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चामुण्डराय ने चारित्रसार में अपने देशकाल के अनुसार हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह के स्थूल तथा जुआ, मांस और मद्य सेवन के त्याग को अष्टमूलगुण नाम दिया होगा । इसकारण इनके कथन पर्व | में मधुत्याग गौण हो जायेगा ।
महापुराण के कर्ता जिनसेनाचार्य आठ की संख्या कायम रखने के कारण मद्य-मांस एवं पाँच उदुम्बर फलों के साथ हिंसा आदि पाँचों पापों को एक गिनकर आठ मूलगुण कहेंगे। ध्यान रहे, उन्होंने मद्य-त्याग की जगह हिंसादि पापों के त्याग को स्थान दिया है - ऐसा समझना ।
इससे यह नहीं समझना चाहिए कि उन्हें मद्य-त्याग कराना इष्ट नहीं है। मद्य तो सामाजिक दृष्टि से भी वर्जित है ही, अतः मद्य के कथन को गौण करके उसके स्थान पर पापों के त्याग को मुख्य किया है।