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देवविमान, नागभवन, सिंहासन, रत्नराशि एवं निर्धूम अग्नि - ऐसे सोलह मंगल स्वप्न दिखाई दिये; वे || आनन्दविभोर हो गईं। अन्त में ऐसा लगा जैसे एक हाथी उनके मुख में प्रवेश कर रहा हो । ठीक उसी क्षण सर्वार्थसिद्धि विमान में आयु पूर्ण करके तीर्थंकर के जीव ने उनके उदर में प्रवेश किया। स्वर्गलोक के वैभव से असन्तुष्ट वे धर्मात्मा मोक्ष की साधना के लिए मनुष्य लोक में अवतरित हुए। 'धर्म' का अवतार हुआ। | उसीसमय पन्द्रहवें तीर्थंकर के गर्भकल्याणक का महोत्सव मनाने हेतु देव-देवेन्द्र आ पहुँचे। उत्तम
वस्त्रालंकारों की भेंट द्वारा माता-पिता का सम्मान करके 'जगतमाता' एवं 'जगतपिता' कहकर बहुमान | किया। रत्नपुरी की शोभा दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी, प्रजाजनों में धर्मभावना जागृत हुई; माता सुप्रभा के विचारों में भी उच्च परिवर्तन हुआ। उन्हें ऐसी इच्छा हुई कि राज्य के कारागार में तथा पिंजरों में बन्द समस्त मनुष्यों एवं पशु-पक्षियों को बन्धन से मुक्त किया जाय। उनकी कोख में मुक्त होनेवाला जीव पल रहा था, इसलिए उन्हें इच्छा भी वैसी उत्पन्न हुई कि सर्वजीवों को मुक्ति मिले। भगवान धर्मनाथ भी अवतार लेकर जीवों को मुक्ति का मार्ग बतलाकर बन्धन से मुक्त करानेवाले हैं। ___ नौ महीने गर्भ में रहने पर भी उन बाल तीर्थंकर का शरीर मैला नहीं हुआ था। देवियाँ गर्भ में भी उनकी सेवा करती थीं। उनको गर्भावस्था के कोई दुःख नहीं सहने पड़े थे। उनकी माता को भी कोई कष्ट नहीं था। देवियाँ, चर्चा, विनोद, नाटक, संगीत आदि द्वारा सर्वप्रकार से उन्हें प्रसन्न रखती थीं।
माघ कृष्णा त्रयोदशी के दिन बालक के जन्म से सर्वत्र हर्ष छा गया, स्वर्ग के वाद्य अपने आप बज उठे। बाल-तीर्थंकर के अवतार का सन्देश स्वर्ग तथा नरक में भी पहुँच गया। नरक में कभी नहीं देखी गई शान्ति का अनुभव करके नारकी जीव भी दो क्षण के लिए चकित हो गये और बाल तीर्थंकर के अवतार का प्रभाव जानकर कितने ही जीवों ने सम्यक्त्व प्राप्त किया । स्वर्गलोक के देवेन्द्रों ने तीर्थंकर के जन्म की खबर पड़ते ही सिंहासन से उतरकर नमस्कार किया और भक्तिपूर्वक बाल-तीर्थंकर के दर्शन करने रत्नपुरी में आ पहुँचे।
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