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| में दशरथ नाम के राजा थे। एक दिन चैत्रशुक्ला पूर्णिमा को चन्द्रग्रहण देखकर वे संसार से विरक्त हुए और
दीक्षा लेकर दर्शनविशुद्धि आदि सोलह उत्तम भावनाओं पूर्वक तीर्थंकर नामकर्मरूप सर्वोत्कृष्ट पुण्य-प्रकृति | का बंध किया और अब जैनधर्म का महान उद्योत करेंगे।" | इसप्रकार प्रचेतस मुनिराज के श्रीमुख से अपनी नगरी में अवतरित होनेवाले धर्मनाथ तीर्थंकर के तीन || भव व्याप्त हो गया। राजा-रानी मुनिराज के धर्मोपदेश से तथा पुत्र प्राप्ति के समाचारों से तृप्त होकर नगर में लौटे। मानों रत्नपुरी नगरी में तीर्थंकर का अवतार हो ही गया हो - इसप्रकार सर्वत्र आनन्द छा गया और उत्सव होने लगे। वह दिन था कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी का।
महाराजा भानु और महारानी सुप्रभा हाथी पर बैठकर अभी तो राजमहल के मुख्यद्वार में प्रवेश कर ही | रहे थे कि उन्होंने आश्चर्यजनक घटना देखी। आकाश में से दिव्यरूपधारी देवियाँ उतर रही हैं और चारों | ओर रत्नों की वर्षा हो रही है। रत्नपुरी की शोभा में अचानक वृद्धि हो गई है, कभी नहीं देखे ऐसे अनुपम दृश्य देखकर प्रजा के हर्ष का पार नहीं था। उन देवियों ने राजमहल में प्रवेश किया और राजा-रानी को वन्दन कर कहने लगीं - "हे देव! हे माता! आप धन्य हैं! आप तो जगत के माता-पिता हो । छह मास पश्चात् आपके यहाँ तीर्थंकर का आगमन होना है, इसलिए इन्द्र महाराज ने हमें आपकी सेवा में भेजा हैं। हम दिक्कुमारी देवियाँ हैं और तीर्थंकर की माता एवं बाल-तीर्थंकर की सेवा करने का महान लाभ हम प्राप्त करना चाहती हैं, जिसके प्रताप से हम भी मोक्षगामी होंगी। रत्नपुरी में प्रारम्भ होनेवाली यह रत्नवृष्टि भी आपके घर में तीर्थंकर के आगमन की पूर्वसूचना है; यह रत्नवृष्टि निरन्तर पन्द्रह मास तक होती रहेगी।
महाराजा भानु और महादेवी सुप्रभा यह सब सुनकर तथा दृश्य देखकर परमतृप्त हुए। एक तो सम्यग्दर्शन की प्राप्ति और पश्चात् तीर्थंकर के कल्याणकों की प्राप्ति का सुअवसर, सोने में सुगन्ध, इससे अच्छा और | क्या होगा?
वैशाख कृष्णा त्रयोदशी की रात्रि को जब महादेवी सुप्रभा मीठी नींद में सो रही थी तब उन्हें दिव्य हाथी, सिंह, वृषभ, लक्ष्मी, पुष्पमालाएँ, मंगल घट, किल्लोल करती मछलियाँ, चन्द्र, सूर्य, सरोवर, || १४