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भानुराजा ने विनयपूर्वक हाथ जोड़कर मुनिराज की स्तुति की - "हे प्रभो! आज अचानक आपके दर्शनों | से हमें महान कल्याण की प्राप्ति हुई, हमारे पाप धुल गये; आप आकाशमार्ग से यहाँ पधारे यह हमारे किसी | महाभाग का संकेत है। आपके दर्शन से हमारे अन्तर में परम हर्ष हो रहा है और आपके श्रीमुख से धर्मकथा
सुनने की उत्कण्ठा हृदय में जागृत हो रही है।" || मुनिराज ने कहा - "हे भव्य! तुम दोनों जीव मोक्षगामी हो । संसार के चाहे जैसे पुण्यसंयोग भी जीव || को तृप्ति नहीं दे सकते; जीव को तृप्ति दे - ऐसा स्वभाव आत्मा में है। निजस्वभाव में सुख का जो भण्डार
है, उसे देखते ही अपूर्व सुखानुभव और तृप्ति होती है। उस सुख के लिए किसी बाह्य सामग्री की अपेक्षा || नहीं होती। राजवैभवादि चाहे जितने होने पर भी जीव मानसिक चिन्ताओं से दुःखी रहता है। देखो, तुम्हें | स्वयं ही अनुभव है कि अपार बाह्य पुण्यसामग्री होने पर भी मानसिक चिन्ता से कितने दुःखी हो।
राजा को लगा जैसे मुनिराज उनके मन की बात समझ गये हों, इसलिए उन्होंने अपना हृदय खोलकर | कहा - "हे स्वामी! आपकी बात सत्य है; सर्वप्रकार का राजवैभव होने पर भी हम पुत्र के बिना बहुत दुःखी हैं; पुत्र की चिन्ता के कारण धर्म की साधना में हमारा चित्त नहीं लगता। हे स्वामी! हमारी पुत्र संबंधी चिन्ता कब दूर होगी ?" ___श्री मुनिराज बोले - “हे राजन्! हे सुप्रभा माता! सुनो! तुम कोई सामान्य मनुष्य नहीं हो, तुम्हारे महान पुण्य का उदय आज से ही प्रारम्भ होता है। तुम्हारी पुत्रेच्छा शीघ्र पूर्ण होगी, इतना ही नहीं, तुम्हारा होनहार पुत्र तीन लोक को आनन्दित करेगा। आज से ठीक छह मास पश्चात् महारानी के गर्भ में एक भव्यजीव आयेगा और वह भरतक्षेत्र में पन्द्रहवाँ तीर्थंकर होकर जगत का कल्याण करेगा। जगत के गुरु ऐसे तीर्थंकर के माता-पिता होने से तुम भी जगत्पूज्य बनोगे।"
“वाह! हमारे यहाँ पुत्र होगा और वह भी तीर्थंकर बनेगा! यह बात मुनिराज के श्रीमुख से सुनकर दोनों के हर्ष का पार नहीं रहा। पन्द्रह मास पश्चात् अपनी रत्नपुरी में तीर्थंकर का अवतार होगा - यह जानकर १४