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आत्मध्यान करने लगे। उनकी शान्तमुद्रा अद्भुत है, उनके दर्शन से अलौकिक शान्ति का अनुभव होता है; मोर और सर्प, शेर और बन्दर, हाथी और सिंह एकसाथ मुनिराज के निकट बैठकर मानों शान्ति का अनुभव | कर रहे हैं; कोई किसी की हिंसा नहीं करता और न किसी को किसी का भय है। हे महाराज! ऐसे ऋद्धिधारी
मुनिराज का अपनी नगरी में पदार्पण हुआ है, उसकी बधाई देने में यहाँ आया हूँ। || मुनिराज के आगमन की बधाई सुनते ही रत्नपुरी के महाराजा भानु आनन्दविभोर हो गये, उनके मुख से निकला - 'अहा! मेरी नगरी में ऐसे मुनि भगवन्त का आगमन!, इस हर्षोल्लास के प्रसंग पर पुत्र के अभाव की चिन्ता को भूलकर राजा, महारानी को साथ लेकर अत्यन्त भक्तिपूर्वक उन मुनिराज के दर्शन हेतु तपोवन की ओर चले, लाखों प्रजाजन भी उनके साथ थे। | उपवन के निकट आते ही वहाँ की शोभा देखकर वे मुग्ध हो गये। सर्वऋतुओं के रंग-बिरंगे पुष्पों एवं फलों की सुन्दरता को देखकर महारानी को ऐसा रोमांच हुआ, मानों अब अपने जीवन-उद्यान में भी सुन्दर पुत्ररूपी पुष्प खिल उठेगा। आगे बढ़ने पर ध्यानस्थ 'प्रचेतस' मुनिराज को देखा । अहा, कैसी तृप्ति! जिनके चरणों की शीतल छाया में हिरण और शेर एकसाथ बैठे हैं और शान्ति से मुनिराज की मुद्रा निहार रहे हैं। नेवला और सर्प एक-दूसरे से सटकर शान्ति से बैठे हैं, न कोई भय है न बैरभाव । वन के समस्त वृक्ष उत्तम फल-फूलों से झुक रहे हैं - मानों मुनिराज को वन्दन करके फलों द्वारा पूजा कर रहे हों। मुनिराज तो अपने परमतत्त्व के अवलोकन में तल्लीन हैं, मानों सिद्धलोक से आकर सिद्ध भगवान ही विराजमान हों।
राजा कल्पनातीत आनन्द का अनुभव कर रहे थे। सो ठीक ही है - साधु-सन्तों का साक्षात् योग धर्मी जीवों को इन्द्रपद की अपेक्षा विशेष हर्ष देनेवाला होता है।
ऋद्धिधारी वात्सल्यमूर्ति मुनिराज के दर्शन से वे समस्त संसार दुःख को भूल गये थे। मुनिराज का ध्यानयोग पूर्ण होने पर उन्होंने नेत्र खोले; उन नेत्रों से धर्म का अमृत झर रहा था। राजा-रानी ने नमस्कार किया और मुनिराज ने उन्हें धर्मवृद्धि का आशीर्वाद दिया। रानी सुप्रभा का हृदय आज किसी कल्पनातीत प्रसन्नता का अनुभव कर रहा था, उनके आत्मा में धर्म की एक नई झंकार उठ रही थी।