________________
॥ इस भरतक्षेत्र में अयोध्या के निकट रत्नपुरी' नाम की सुन्दर नगरी है। वहाँ के महाराजा भानुसेन और श | महारानी सुप्रभा थी। वे भानु और सुप्रभा सम्पूर्ण राजवैभव सहित एवं गुणसम्पन्न होने पर भी एक बात
से दुःखी थे। अभी तक उनको पुत्र प्राप्ति नहीं हुई थी। पुत्र के बिना उन्हें राजभोग नीरस प्रतीत होते थे। जिसप्रकार सम्यक्त्व रहित ज्ञान वैभव से या तप सामग्री से आत्मार्थी जीव का चित्त संतुष्ट नहीं होता, उसीप्रकार मातृहृदया महादेवी का चित्त महान राजभोग के बीच भी अतृप्त रहता था। जिसप्रकार भव | से भयभीत भव्य जीव सम्यग्दर्शन के लिए लालायित रहता है, उसीप्रकार वह महारानी पुत्र प्राप्ति की लालसा रखती थी। दिन-प्रतिदिन उसकी लालसा बढ़ती गई और उसे उदास देखकर महाराजा भानु भी चिन्तित रहने लगे। जिसप्रकार सम्यक्त्व के लिए लालायित सच्चे आत्मार्थी को उसकी प्राप्ति अवश्य होती है, उसीप्रकार महापुण्यवन्त महाराजा और महारानी के जीवन में भी पुत्र प्राप्ति की एक अद्भुत घटना घटित हुई।
एक बार (कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी के दिन) वे राजसभा में बैठे थे। इतने में अचानक वनपाल उत्साहपूर्वक वहाँ आया और महाराजा के चरणों में आम्रफल भेंट किए। पके हुए सुन्दर आम्रफल देखकर सभाजन भी आश्चर्यचकित हो गये; (क्योंकि अभी आम्रफल पकने का मौसम नहीं था) फिर माली ने हर्षपूर्वक बधाई दी - हे महाराज ! आज अपने उपवन में मैंने अद्भुत-आश्चर्यकारी दृश्य देखे -
एक सिंह का और एक गाय का बच्चा साथ-साथ खेल रहे थे। सिंह और गाय साथ-साथ तालाब में पानी पी रहे थे, सिंह का बच्चा गाय को अपनी माँ समझकर उसका दूध पी रहा था और गाय का बच्चा निर्भय होकर सिंहनी का दूध पी रहा था; सिंहनी गाय के बच्चे को और गाय उस सिंहनी के बच्चे को दुलार रही थीं। मेरा आश्चर्य समाप्त हो इतने में मैंने देखा कि शेर और खरगोश दोनों एकसाथ बैठे हैं, इस कार्तिक मास में भी आम्रवृक्ष अचानक ही फलाच्छादित होकर झुक गये हैं; सचमुच असमय में ही आम्र पक गये। यह सब आश्चर्यजनक घटनायें देखकर मैं विस्मय विमूढ़ हो गया। मैं आसपास खोज कर रहा था तो मैंने | देखा कि आकाशमार्ग से एक दिगम्बर मुद्राधारी साधु उपवन में उतरे और शुद्ध-स्वच्छ स्थान में बैठकर || १४