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वन भटकने जाते हो? शरीर से भिन्न अतीन्द्रिय सुखस्वरूप आत्मा को किसने देखा है ? परलोक और मोक्ष | किसने देखे? अत: आप उपलब्ध राजसुख का ही उपभोग करें।
नास्तिक मंत्री के विचित्र विचारों का भावी तीर्थंकर महाराज दशरथ के मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। मंत्री के कथन से अप्रभावित रहकर उन्होंने शान्ति के साथ गंभीरता पूर्वक उत्तर दिया - "हे मंत्री! तुम राज्यशासन का सुचारु रीति से संचालन करने में अत्यन्त चतुर सलाहकार हो, इसमें जरा भी संदेह नहीं; परन्तु अभी तुम लोक-परलोक और आत्मा-परमात्मा के अस्तित्व से सर्वथा अनभिज्ञ हो । सर्वज्ञ, सर्वदर्शी जिनेश्वर ने प्रत्यक्षज्ञान पूर्वक यह सबकुछ देखा-जाना है। और आत्मा के स्वरूप की सिद्धि की है। और सौभाग्य से जिनधर्म की शरण प्राप्त होने से मुझे भी अपने स्वानुभव द्वारा देह से भिन्न आत्मा प्रत्यक्ष भासित होने लगा है। विषयरहित अतीन्द्रिय आनन्द का स्वाद भी मुझे किंचित्-किंचित् आने लगा है। आत्मा में जैसा निराकुल सुख है, वैसा इन विषयों में कहीं नहीं है। कोई भी विषयसुख आत्मा को कभी भी तृप्ति नहीं दे सकते; अतः इस विषय में आप सलाह देने के अधिकारी नहीं हैं। यदि सच्चा सुख प्राप्त करना चाहते हो तो तुम्हें भी इसी मार्ग पर आना होगा।" - ऐसा कहकर महाराजा दशरथ ने राजसभा में ही देह से भिन्न आत्मा की सिद्धि करते हुए उद्बोधन दिया - ___ “हे भव्य आत्माओं ! जीव को अन्तर में जो सुख-दुःख की अनुभूति होती है, उन अनुभूतियों को जीव स्वयं अन्तर में स्वानुभव से स्पष्ट जानता है। विचार की उत्पत्ति शरीर में नहीं होती, किन्तु शरीर से भिन्न जीव में होती है। जीव अरूपी है इसलिए उसके विचारों एवं अनुभूतियाँ भी अरूपी हैं; वे नेत्रादि इन्द्रियों द्वारा दृष्टिगोचर न होने पर भी इन्द्रियरहित स्वसंवेदनरूप ज्ञान से जाने जा सकते हैं। इसप्रकार स्वसंवेदन करनेवाला जो तत्त्व है, वही जीव है। शरीर की चेष्टाएँ इन्द्रियों द्वारा दिखाई देती हैं; क्योंकि वे मूर्त हैं। इसप्रकार अरूपी एवं ज्ञानमय जीव का अस्तित्व प्रत्येक को अपने स्वसंवेदन से सिद्ध हो सकता है। मैं | हूँ' ऐसी अपनी अस्ति का जो वेदन करता है, वही जीव है।"
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