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चन्द्रग्रहण तो पहले भी अनेक बार देखा था; परन्तु तब वैराग्य होने की घड़ी नहीं आई थी, काललब्धि नहीं आई थी, अत: वे पूर्व में देखीं अनेक घटनायें निमित्त कारण न बन सकीं। अब अन्तर में उपादान की तत्समय की योग्यता का परिपाक हुआ और बाहर निमित्तरूप में चन्द्रग्रहण को देखने का संयोग मिला तो राजा दशरथ को वैराग्य हो गया। ॥ वे सोचने लगे, “अरे ! ऐसे प्रतापवंत चन्द्र को भी क्षणभर में राहू ग्रस लेता है तो पुण्य से प्राप्त इस राज्य वैभव को भी दुर्भाग्य रूप राहू कभी भी ग्रस सकता है, अत: समय रहते ऐसा काम क्यों न करें, जिससे दुर्भाग्य को ग्रसने का मौका ही न मिले । वह हमें ग्रसित कर सके, उसके पहले हम ही उस दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदल दें। अर्थात् जिन दीक्षा धारण करके उस कर्मकलंक को ही धो डालें। फिर न रहेगा बांस न बनेगी बांसुरी । जब कर्म ही नहीं होंगे तो दुर्भाग्य से भाग्य का सवाल ही नहीं उठता।"
देखो, जिसप्रकार विशाल समुद्र के बीच जहाज पर बैठे पक्षी को जहाज के सिवाय अन्य कुछ भी शरण नहीं है, उसीप्रकार संसारी प्राणी को एक आत्मा के सिवाय अन्य कुछ भी शरण नहीं है। सब संयोग अध्रुव हैं। यह जीव परिवार के निमित्त से पाप करता है, उसका फल उसे स्वयं को ही भोगना होता है, परिवार साथ नहीं देता, दे भी नहीं सकता। अत: ऐसे संसार का मोह तुरन्त त्यागने योग्य है।
दशरथ राजा यह निश्चय करते हैं कि "मैं भी कल ही मुनिदीक्षा ग्रहण करूँगा और अपने चैतन्य सुख को साधूंगा।
दूसरे दिन प्रात:काल राजा दशरथ ने राजसभा में जिनदीक्षा लेने की घोषणा कर दी। अनेक भव्य जीवों ने उनके वैराग्य की प्रशंसा की और अनुमोदना की। उनके अनेक मंत्रियों में एक विचित्रमती नामक मंत्री कुछ विचित्र ही था। वह ही परलोक और मोक्ष सुख के प्रति आस्थावान था, शेष नास्तिक विचारों के मंत्री ने राजा को सलाह देते हुए कहा कि - 'हे राजन! आप सबप्रकार से साधन सम्पन्न हो, सबप्रकार के इन्द्रियसुख आपको उपलब्ध हैं। इन प्रत्यक्ष सुखों को छोड़कर परोक्ष सुखों की मृगतृष्णा में क्यों वन- ॥ १४