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• मैं परजीवों का भला कर सकता हूँ - इस मान्यता से या ऐसी श्रद्धा से अहंकार उत्पन्न होता है ।
• मैं पर को हानि पहुँचा सकता हूँ - ऐसी श्रद्धा से क्रोध भभकता है ।
- पर मेरा भला कर सकता है ऐसी मान्यता से दीनता / हीनता आती है ।
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- पर मेरा बुरा कर सकता है - ऐसी मान्यता से व्यक्ति भयाक्रान्त हो जाता है ।
तथा इनकी यथार्थ समझ से निमित्तरूप पराश्रय के भावों से उत्पन्न होनेवाली दीनता / हीनता का अभाव होता है, क्रोधादि विभावभावों की उत्पत्ति नहीं होती, स्वतंत्रता / स्वाधीनता का भाव जागृत होता है तथा पर-पदार्थों के सहयोग की आकांक्षा से होनेवाली व्यग्रता का अभाव होकर सहज-स्वाभाविक शान्तदशा प्रगट होती है।
परोन्मुखता समाप्त करने के लिए एवं स्वोन्मुखता प्राप्त करने के लिए कैसी श्रद्धा होना
उत्तर – “आत्मा के सुख-दुःख में, हानि-लाभ या उत्थान - पतन में निमित्तरूप परद्रव्य का किंचित् भी कर्तृत्व नहीं है तथा मेरा हिताहित दूसरे के हाथ में रंचमात्र भी नहीं है।" ऐसी श्रद्धा के बिना स्वोन्मुखता | संभव नहीं है तथा स्वोन्मुख हुए बिना आत्मानुभूति होना संभव नहीं है, जो कि सम्यग्दर्शन की अनिवार्य | शर्त है; क्योंकि आत्मानुभूति के बिना तो मोक्षमार्ग का शुभारंभ ही नहीं होता ।
निमित्तोपादान के समझने से परपदार्थ के परिणमन में फेरफार करने की जो अपनी अनादिकालीन विपरीत मान्यता है, उसका नाश तो होता ही है; अपनी पर्याय पलटने की, उसे आगे-पीछे करने की आकुलता भी समाप्त हो जाती है।
प्रश्न ४ - आवश्यक है ?
निमित्तोपादान का स्वरूप समझने से दृष्टि निमित्तों पर से हटकर त्रिकाली उपादानरूप निज स्वभाव की ओर ढलती है, जो अपने देह - देवालय में विराजमान स्वयं कारणपरमात्मा है। ऐसे कारणपरमात्मा की ओर ढलती हुई दृष्टि ही आत्मानुभूति की पूर्वप्रक्रिया है ।
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