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दिया। आहार दान देनेवाले को ऐसा निर्मलभाव हुआ कि उसके मोक्ष के सूचक दैवी वाद्य बजने लगे और | | आकाश से रत्नवृष्टि हुई। | मुनिदशा में विचरण करते हुए वे दो वर्ष बाद पुनः अयोध्या नगरी में पधारे और जिस तपोवन में दीक्षा
ली थी, उसी में चैत्रकृष्ण अमावस्या के दिन शुक्लध्यान द्वारा केवलज्ञान प्रगट हो गया। देवेन्द्रों ने उनका | केवलज्ञान कल्याणक महोत्सव मनाया और समवशरण की रचना की। अनन्तनाथ भगवान की अनन्तभावों | से भरी दिव्यध्वनि सहजरूप से खिरने लगी। 'जय' आदि पचास गणधर एकसाथ उस दिव्य वाणी को झेल
रहे थे। तदुपरान्त कितने ही मुनिवरों ने समवशरण में ही आत्मलीन होकर केवलज्ञान प्राप्त किया। सब | मिलाकर पाँच हजार केवली भगवान उनकी धर्मसभा में विराजते थे। ॥ ज्ञातव्य है कि एक क्षेत्र में दो तीर्थंकर साथ-साथ नहीं होते; परन्तु केवली भगवान (अरहंत) तो समवशरण में हजारों एकसाथ होते हैं। पाँच हजार मन:पर्ययज्ञानी, चार हजार से अधिक अवधिज्ञानी मुनिवर, एक हजार बारह अंगधारी श्रुतकेवली, तीन हजार से अधिक वाद विद्या में निपुण मुनिवर, चालीस हजार उपाध्याय तथा आठ हजार विक्रिया ऋद्धि धारी मुनिवर विद्यमान थे। कुल ६६ हजार मुनिवर एक लाख आठ हजार आर्यिकायें, दो लाख श्रावक और चार लाख श्राविकाओं का चतुर्विध संघ प्रभु के साथ मोक्षमार्ग में चल रहा था। तिर्यंचों का राजा सिंह, हाथी, सर्प, बन्दर, मोर आदि लाखों प्राणी भी प्रभु के दर्शन से हर्षित होते थे। दिव्यध्वनि सुनकर आत्मज्ञान प्राप्त करते थे।
समवशरण के अचिन्त्य वैभव के सामने देव भी नतमस्तक थे और अपने आत्मवैभव की उपासना करते | थे। कितने ही मिथ्यादृष्टि जीव भी सम्यग्दृष्टि बन जाते थे। भगवान अनन्तनाथ ने लाखों वर्षों तक धर्मोपदेश देकर धर्मचक्र का प्रवर्तन किया। उनकी दिव्यध्वनि में आता था कि - "हे भव्य ! आत्मा में एक ही नहीं, अपितु अनन्तधर्म एकसाथ विद्यमान हैं। एक ही समय में सत्पना और असत्पना; एकपना और अनेकपना; नित्यपना और अनित्यपना, ज्ञान और आनन्द, कर्तृत्व और अकर्तृत्व - ऐसे अनन्त धर्म किसी प्रकार के विरोध बिना वस्तु में एकसाथ विद्यमान हैं। यही वस्तु का स्वरूप है।
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