________________
भावी तीर्थंकर राजा पद्मरथ ने भगवान के समवशरण में बैठकर धर्मोपदेश सुना । सुनते ही वे वैराग्य | भावना का चिन्तन करने लगे - "इस जीव को शरीर के साथ का संबंध कहीं नित्य रहनेवाला नहीं है। अनन्त शरीरों के साथ संबंध हुआ; किन्तु एक भी शरीर स्थाई नहीं रहा । सब पृथक् हो गये; क्योंकि शरीर का स्वभाव ही ऐसा है, जीव और शरीर तो पृथक् हैं ही; परन्तु अज्ञानी बहिरात्मा ने देह और जीव को | एक मान रखा था। इसीप्रकार पाँचों इन्द्रियों और उनके विषयों का संबंध भी नित्य रहनेवाला नहीं है, क्षणभंगुर है।"
वैराग्यवन्त राजा विचारते हैं - "अन्यमत के मोहासक्त जीव भले ही उसमें मोहित रहें; परन्तु मैंने तो | अरहन्त भगवान के मत की शरण लेकर जड़-चेतन का भेदज्ञान किया है। इसलिए मैं इन बाह्य विषयों में मोहित नहीं होऊँगा । अरहन्त देव ने अनन्त चैतन्य वैभव मुझे बतला दिया है, उसी की मैं साधना करूँगा।"
इसप्रकार राजा पद्मरथ का चित्त संसार से विरक्त हुआ। जिसप्रकार दीर्घकाल से अपने पुराने स्थान में | रहनेवाला शशक (खरगोश) वन में आग लगने पर उससे बचने के लिए उस स्थान को छोड़कर अन्यत्र कहीं दूर चला जाता है, पुराने स्थान में ममत्व नहीं करता; उसीप्रकार अति दीर्घकाल से संसार में रहने पर भी कषायों की आग में झुलसने से भयभीत हुए भव्यात्मा पद्मरथ सांसारिक राजपाट को छोड़कर मोक्ष की साधना के लिए तत्पर हुए।
उन्होंने स्वंयप्रभ भगवान के सन्निकट में जिनदीक्षा ग्रहण कर ली, ग्यारह अंग का ज्ञान प्रगट हो गया और सोलहकारण भावना भाते हुए विश्वकल्याण की भावना भाई; जिससे तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया। चार प्रकार की आराधना सहित समाधि मरण कर लिया। अच्युत स्वर्ग में इन्द्र हुए। वहाँ असंख्य वर्षों तक सम्यक्त्व पूर्वक रहे। जब मनुष्य लोक में तीर्थंकर के रूप में अवतरित होने के छः माह शेष रहे तो पूर्व में हुए तीर्थंकरों की भांति ही जयश्यामा माता ने सोलह स्वप्न देखे। प्रात: अनेक शुभ लक्षणों से युक्त महाराजा सिंहसेन से स्वप्नों का फल पूछा। उन्होंने फलों में बताया कि तुम्हारी कुक्षि से तीर्थंकर का | जीव जन्म लेगा। वह बहुत भाग्यशाली होगा आदि।
+E B
EF