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१६३॥ मुनिराज विमलनाथ को शुद्धात्म ध्यानरूप शुद्धोपयोग हुआ। साथ ही मन:पर्ययज्ञान भी प्रगट हो गया।
| दीक्षा के बाद केवलज्ञान होने पर उन्होंने भी अन्य तीर्थंकरों की भांति ही मौन धारण कर लिया। | दीक्षा के दो दिन बाद मुनिराज विमलनाथ आहारचर्या हेतु नन्दन नगर में पधारे और जयराजा ने उन्हें भक्तिभावना पूर्वक पारणा कराया। आहारदान देते समय उनके चित्त में परमात्मपद जैसा आनन्द आया। तीन वर्ष बाद जब मुनि विमलनाथ को केवलज्ञान हुआ, तब उन जयराजा ने प्रभु के चरणों में ही दीक्षा | ग्रहण की और आत्मसाधना कर मोक्ष पधारे।
यद्यपि भगवान विमलनाथ ने मुनिदशा में तीन वर्ष तक विहार काल में मौन ग्रहण किया हुआ था तो | भी मात्र उनकी परम शान्त मुद्रा के दर्शन कर ही बहुत से जीवों ने धर्म स्वरूप समझकर आत्मकल्याण | किया। प्रभु ने माघशुक्ल षष्ठी के दिन केवलज्ञान प्रगट किया। उसीकारण तीर्थंकर प्रकृति के उदय होने से इन्द्रभक्ति से दौड़े आये और केवलज्ञानी प्रभु की पूजा की। दिव्य समोशरण की रचना हुई। प्रभु के उपदेश से अनेक जीवों ने यथार्थ धर्म प्राप्त किया। ___ भगवान विमलनाथ का समवशरण (धर्मसभा) गुजरात, सौराष्ट्र, अंग, बंग आदि अनेक देशों में विहार करता हुआ धर्म का प्रचार-प्रसार करता रहा। विमलनाथ तीर्थंकर की धर्मसभा में पचपन गणधर थे, पाँच हजार पाँच सौ केवली विराजते थे। ग्यारह सौ श्रुत केवली, छत्तीस हजार पाँच सौ तीस उपाध्याय, चार हजार आठ सौ अवधि ज्ञानी, पाँच हजार चार सौ मन:पर्ययज्ञानी, नौ हजार विक्रियाऋद्धिधारी मुनि तथा छत्तीस वाद-विवाद में निपुण मुनिवर थे।
एक लाख तीन हजार आर्यिकाएँ, दो लाख श्रावक तथा चार लाख श्राविकायें थीं। देव-देवियाँ तो असंख्य थीं, पशु भी उनकी धर्मसभा के श्रोता थे। भगवान विमलनाथ ने पन्द्रह लाख वर्ष तक तीर्थंकर के रूप में अपनी धर्मसभा के साथ विहार किया और धर्मचक्र का प्रवर्तन किया।
उनके विहार काल में अनेक भव्यों के मन में भक्ष्य-अभक्ष्य पदार्थों के संबंध में जिज्ञासायें जागृत हुईं। ॥ १२