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________________ १६२ | शक्ति वस्तुस्वरूप के विचार में, आत्मचिन्तन में और जिनवाणी के रहस्यों को जानने में, उसी की अनुप्रेक्षा | में लगाना चाहिए। यही एकमात्र कल्याण का मार्ग है “मैं अपने उन पूर्वजों के मार्ग का अनुसरण करूँगा, मैं भी उन जैसा परमात्मा बनने के लिए उसी परम्परा का अनुसरण करूँगा; अत: आज ही मैं भव-तनभोग का मोह त्याग कर वीतराग रत्नत्रय धारण करूँगा और आत्मध्यान द्वारा केवलज्ञान प्रगट करूँगा।" इसप्रकार महाराजा विमलनाथ ने दीक्षा लेने का निश्चय किया। उनके इस निश्चय को जानकर तुरंत पाँचवें ब्रह्म स्वर्ग से सारस्वत आदि चालीस लाख सात हजार आठ सौ बीस (४०, १०७, ८२०) लौकान्तिकदेव कम्पिलानगरी में आये और विनयपूर्वक शान्तरस भरे वचनों द्वारा प्रभु के वैराग्य का अनुमोदन करने लगे। उन्होंने कहा - "हे देव ! आपके विचार सर्वोत्तम हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं। दीक्षा संबंधी आपकी भावना आपके लिए तो कल्याणकारी है ही, जगत के लिए भी कल्याणकारी है। जिसप्रकार चंदन वृक्ष के संबंध से अन्य वृक्ष भी सुगंधमय हो जाते हैं, उसीप्रकार प्रभो ! लाखों वर्षों से भरतक्षेत्र के भव्य प्राणी मुक्तिमार्ग के लिए लालायित हैं, तरस रहे हैं। आपकी दीक्षा से उनकी यह लालसा पूर्ण हो जायेगी। ऐसा कह कर एवं उनके वैराग्य की अनुमोदना करके लौकान्तिकदेव वापिस चले गये और उसीसमय इन्द्रादिगण 'देवदत्त' नामक पालकी लेकर आये । प्रभु के चरण स्पर्श से वह पालकी तो धन्य हो ही गई, पालकी उठानेवाले भी धन्य हो गये। सबने अपने-अपने सौभाग्य की सराहना की। वे विचार करने लगे “पारस के स्पर्श से तो मात्र लोहा ही सुवर्ण होता है, प्रभु के स्पर्श एवं सत्संग से तो आत्मा परमात्मा बन जाता है।" सहेतुक नामक दीक्षावन में पहुँचकर महाराजा विमलनाथ ने अन्तर-बाह्य समस्त परिग्रह का त्याग कर दिया। देव, मनुष्य, तिर्यंच भी उनकी नग्न दिगम्बरत्व वीतरागी मुद्रा देखकर भाव-विभोर हो गये, उन पर मुग्ध हो गये। उन्हें भी परिग्रह नीरस लगने लगा। कितने ही भव्य जीव तो उनके साथ ही परिग्रह छोड़कर प्रभु के साथ दीक्षा ग्रहण करने हेतु तैयार हो गये। अन्य कितनों ने श्रावक व्रत अंगीकार किए और अनेक जीवों ने शुद्धात्मा की श्रद्धा और स्वानुभव से सम्यग्दर्शन प्रगट किया। REFFEE IFE 19
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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