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________________ १६०|| वे संसार के असार स्वरूप को विचारने लगे - "अरे! यह पुण्य का ठाट भी ओसबिन्दु और उल्कापात | के समान क्षणभंगुर है। जिसप्रकार ओस बिन्दुओं पर महल नहीं बनाया जा सकता; उसीप्रकार पुण्य वैभव | द्वारा कहीं आत्मशान्ति की साधना नहीं हो सकती। मुझे तो इसी भव में परमात्मा बनकर मोक्ष प्राप्त करना है। पैंतालीस लाख वर्ष तो इसी राजपाट में बीत गये। अब इस मोह में और अटके रहना भी ठीक नहीं है। यद्यपि मुझे तीन ज्ञान हैं; परन्तु ये मर्यादित जाननेवाले ही हैं। ऐसे अधूरे ज्ञान से भव का अन्त कैसे आयेगा ? सम्यक्त्व होने पर भी चारित्र अभी बहुत अल्प है, निर्जरा अभी अति अल्प है, जबतक चारित्र की पूर्णता नहीं होगी तबतक मुक्ति नहीं होगी। | महाराजा विमलनाथ वैराग्यभावना भा रहे हैं कि इस संसार में प्रत्येक जीव अपने-अपने भावों का ही फल भोगता है। चाहे जैसे इन्द्रियविषय हों; पर उनके सेवन से विषयसुख तो नहीं मिलता। मात्र पाप का ही बन्ध होता है। मेरे इस इक्षुवंश में मुझसे पूर्व कितने ही राजा-महाराजा चक्रवर्ती हो गये; पर कहाँ गये वे चक्री, राजा-महाराजा ? कहाँ गया वह उनका साम्राज्य ? सब इस काल के गाल में समा गये। जो इस राज्य-सम्पदा और इन्द्रियों के विषयों को त्याग कर आत्मसाधना और परमात्मा की आराधना में रम गये, उन्हें तो इस दुःखद संसार से मोक्ष मिल गया और जो इनमें अटक गये, वे मोक्षमार्ग में भटक गये और चौरासी लाख योनियों के भवचक्र में फंस गये। कितना दुर्लभ है यह मंगल अवसर ? प्रथम तो निगोद से निकलना ही भारी दुर्लभ है, फिर इस पर्याय का पाना, मनुष्य पर्याय मिलना, अच्छी बुद्धि, कषायों की मंदता, जिनवाणी का समागम, स्वास्थ्य की अनुकूलता आदि एक से बढ़कर एक अत्यन्त दुर्लभ है। मैंने इन सब दुर्लभताओं को पारकर सबकुछ आत्मकल्याण के अनुकूल सुअवसर पा लिया है; अत: अब एक क्षण भी व्यर्थ की बातों में बर्बाद करना, विकथाओं में लगाना और पारिवारिक, सामाजिक एवं राजनैतिक उलझनों में उलझने से बड़ी मूर्खता और कोई नहीं है। भले ही किसी का क्षयोपशम कम हो या बहुत अधिक ज्ञान का उघाड़ हो, अपनी सम्पूर्ण || १२ CREEFFFFy
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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