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________________ १५९ || पद्मसेन भक्तिपूर्वक केवली भगवान की वंदना करने गये। वहाँ उनकी दिव्यध्वनि द्वारा धर्मोपदेश सुना । | प्रवचन से प्रभावित होकर वे दुःखद संसार से विरक्त हो गये। पद्मसेन राजा निकट भव्य तो थे ही, एक भव बाद ही वे तीर्थंकर होकर मुक्त होनेवाले थे । श ला का सर्वज्ञ भगवान की दिव्यवाणी से अपना भविष्य जानकर परम प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने उज्ज्वल भविष्य की खुशी में मंगल महोत्सव मनाया । भवचक्र से भयभीत राजा पद्मसेन ने केवली भगवान के निकट रु जिनदीक्षा ले ली। पु pm IF 59 ष उ त्त रा र्द्ध यहाँ समझने की महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पद्मसेन को अपना अल्पकाल में मोक्ष जानकर प्रमाद नहीं आया, बल्कि दीक्षा लेने का भाव जागा अर्थात् धर्म एवं मोक्ष पुरुषार्थ जागा । दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावनायें भायीं, उससे उन्हें सातिशय पुण्य का संचय हुआ । उन्होंने तीर्थंकर महापुण्य प्रकृति का पुण्यार्जन किया। ती यद्यपि पुण्यकर्म का संचय ज्ञानी का लक्ष्य नहीं होता; परन्तु साधक की भूमिका में उससे सर्वथा बचा र्थं भी नहीं जा सकता। फिर भी ऐसा पुण्य संचित होता है जिससे आगे पुन: आत्मकल्याणकारी सत्समागम ही प्राप्त होते हैं और अल्पकाल में सर्वथा कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। क मुनिराज पद्मसेन चार आराधना सहित समाधिमरण करके सहस्त्रार नामक स्वर्ग में इन्द्र हुए। स्वर्ग लोक की विभूतियाँ देखकर एक क्षण चकित हुए और अवधिज्ञान से सबकुछ जान लिया कि पूर्वभव में जो धर्म की उपासना की थी, उसके साथ जो पुण्यार्जन हुआ - यह सब उसका फल है। उसका मन भोगों में अधिक नहीं लगा, वे जिनपूजा आदि करने लगे । सुखरूप से जीव स्वयं अपने आप ही परिणमता है, क्योंकि निराकुल सुख जीव का स्वभाव है। ऐसा विवेक उस मुनि पद्मसेन के जीव को वहाँ स्वर्ग में भी वर्तता था । इसलिए स्वर्गलोक के दिव्यवैभव में रहते हुए भी उनकी चेतना अलिप्त रहकर स्वरूप में सावधान रहती है । इसतरह स्वर्गलोक में असंख्य वर्ष र वि म ल ना थ पर्व १२
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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