SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ REFFEE IFE 19 साधना कर रहा है और दूसरा नरक की ओर जा रहा है। संसार की यह विचित्र स्थिति जानकर भव्यजीवों का चित्त विषय-भोगों से विरक्त होकर मोक्षसाधना में लगता है। ____ अब, द्विपृष्ठ वासुदेव का पूर्वभव का शत्रु विन्ध्य राजा का जीव भी भवभ्रमण करता हुआ किसी कारणवश वैराग्य को प्राप्त हुआ और धर्म अंगीकार करके पुनः भोगों की आकांक्षा द्वारा धर्म से भ्रष्ट हुआ। वह भरतक्षेत्र में 'तारक' नामक अर्धचक्री हुआ। उसे दैवी सुदर्शन चक्र प्राप्त हुआ था और तीन खण्ड के हजारों राजाओं को उसने अपना दास बना लिया था; परन्तु अभी द्विपृष्ठ नारायण अविजित था, इसलिए वासुदेव बलदेव को भी अधीनस्थ करने की इच्छा से उसने द्वारावती को दूत भेजकर कहलाया कि हमारी आज्ञा स्वीकार करके तुम्हारे पास गंधहस्ती नाम का जो विशाल हाथी है, वह शीघ्र हमारे पास भिजवा दो, नहीं तो युद्ध के लिए तैयार रहो। दूत की बात सुनते ही पूर्वभव के वैर के संस्कारवश द्विपृष्ठ नारायण का क्रोध जाग उठा और दोनों के बीच महान युद्ध हुआ। अर्द्धचक्री राजा तारक ने द्विपृष्ठ पर सुदर्शनचक्र फैंका; परन्तु द्विपृष्ठ के पूर्वपुण्य के कारण उस चक्र ने उसका वध नहीं किया, उल्टा शांत होकर उसके आधीन हो गया। उत्तेजित द्विपृष्ठ ने भयंकर क्रोधवश उसी चक्र द्वारा तारक-प्रतिवासुदेव का शिरच्छेद करके तीन खण्ड का राज्य प्राप्त कर लिया। तारक अर्द्धचक्री का जीव मरकर सातवें नरक में गया। इसप्रकार द्विपृष्ठ तथा अचल दोनों भाई इस भरतक्षेत्र में द्वितीय वासुदेव (नारायण)-बलदेव (बलभद्र) हुए। उन्होंने तीनों खण्ड की दिग्विजय की। लौटते समय मार्गमें चम्पापुरनगरी आई, वहाँ वासुपूज्य तीर्थंकर विद्यमान थे; उनके दर्शन करके दोनों को अत्यन्त हर्ष हुआ। वहाँ से द्वारावती आकर दोनों भाइयों ने अनेक वर्ष तक तीन खण्ड का राज्य भोगा। अन्त में द्विपृष्ठ का जीव तीव्र भोग लालसापूर्वक रौद्रध्यान से मरकर सातवें नरक में गया। भाई के वियोग से अचल बलभद्र को अति शोक हुआ। द्वारावती में भगवान वासुपूज्य का आगमन होने पर उनके धर्मोपदेश से उनका चित्त शांत हुआ और संसार से विरक्त होकर जिनदीक्षा धारण | 3 ASS
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy