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॥ दूसरे वसुदेव का नाम द्विपृष्ठ था; पूर्वभव में वह भरतक्षेत्र के कनकपुर का राजा सुषेण था। उसके राज | दरबार में गुणमंजरी नाम की एक अति सुन्दर नर्तकी थी। विन्ध्यशक्ति नामक राजा उस नर्तकी पर मोहित हुआ और युद्धमें सुषेण को पराजित करके उस नर्तकी को ले गया। देखो, संसार की विचित्रता ! पुण्य
क्षीण हो जाने पर प्रिय वस्तु भी क्षणभर में छूट जाती है। | नर्तकी के अपहरण से मानभंग हुए राजा सुषेण का हृदय टूट गया; राज्य में कहीं भी चैन नहीं मिला।
अन्त में, एकबार सुव्रत-जिनेन्द्र का धर्मोपदेश सुनकर उसका चित्त संसार से विरक्त हुआ और उसने जिनदीक्षा धारण कर ली; परन्तु दिव्यशक्ति शत्रु को देखकर उसे क्रोध आया और स्वधर्म में भूलकर मिथ्यात्वशल्यपूर्वक उसने धर्म के फल में भोगों की इच्छा की तथा परभव में मैं अपने शत्रु को मारूँगा' - ऐसा पापरूप संकल्प किया। वह मरकर संयम-तप के कारण प्राणत नाम के चौदहवें स्वर्ग में देव हुआ।
जिन सुव्रत-जिनेन्द्र के धर्मोपदेश से उस सुषेण राजा ने दीक्षा ली थी, उन्हीं सुव्रत-जिनेन्द्र के धर्मोपदेश से वायुरथ नाम के राजा ने भी जिनदीक्षा ली थी और समाधिमरण करके वह भी प्राणत स्वर्ग में ही उत्पन्न हुआ। दोनों जीव असंख्यात वर्ष तक प्राणत स्वर्ग में रहे।
वहाँ से आयु पूर्ण होने पर दोनों जीव क्रमश: भरतक्षेत्र में जब भगवान वासुपूज्य विचरते थे, तब द्वारावती नगरी में ब्रह्मराजा के पुत्र द्विपृष्ठ नामक नारायण (वासुदेव) तथा अचल नामक बलदेव हुए। दोनों का मिलन गंगा-यमुना जैसा था। जिसप्रकार एक गुरु द्वारा दी जा रही विद्या का सेवन शिष्यजन बिना | किसी भेदभाव के किया करते हैं, उसीप्रकार वे दोनों भाई बिना किसी भेदभाव के राज्य का उपभोग करते थे; परन्तु उनमें विशेषता यह थी कि अचल बलभद्र तो आत्मज्ञान के संस्कारसहित होने से विषय-भोगों में कहीं सुख माने बिना मोक्ष को साध रहे थे, द्विपृष्ठ वासुदेव पाप के निदान द्वारा आत्मज्ञान से भ्रष्ट हुआ होने से विषय-भोगों में लवलीन रहता था और नरक गति के पापों का बंध करता था। देखो, दोनों भाई ॥ साथ रहकर एक समान भोगोपभोग करते हुए भी दोनों के परिणाम में कितना अन्तर! एक तो मोक्ष की || १९