________________
REE FOR FF 0
“वासुपूज्य देव आत्मध्यान सहित मुनिदशा में विचरते हुए आत्मशुद्धि में अत्यन्त वृद्धि कर रहे थे। | इसलिए पूरे एक वर्ष भी छद्मस्थ दशा में नहीं रहे; फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी को मुनि हुए और माघ कृष्णा द्वितीया को केवलज्ञान प्रकट करके सर्वज्ञ परमात्मा बन गये । चम्पापुरी के जिस मनोहर वन में उन्होंने दीक्षा
ली थी, उसी दीक्षा वन में वासुपूज्य मुनि ने केवलज्ञान प्रकट किया। | भक्त कह उठा “वाह प्रभो! आप सर्वज्ञ हुए। यह देखकर हम जैसे साधकों का हृदय अतीन्द्रिय आनन्द
के प्रति उल्लसित हो रहा है। हे सर्वज्ञ परमात्मा! इन्द्र अपने वैभव सहित आपकी पूजा करने आ पहुँचे। | इन्द्र ने कुबेर को आज्ञा दी कि हे कुबेर ! इन्द्रलोक के उच्च से उच्च वैभवों का उपयोग करके तीर्थंकर प्रभु के समवशरण (धर्मसभा) की रचना करो। तदनुसार प्रभु के दिव्य समवशरण की ऐसी अद्भुत रचना हुई कि उसे देखकर इन्द्र भी आश्चर्यचकित हो गया। “अरे, ऐसी अलौकिक रचना करने का सामर्थ्य हममें कहाँ था, यह तो तीर्थंकर के अचिन्त्य पुण्य का ही प्रताप है, जो यह सब हो सका।" ___ भक्त बोले ! “अहो देव! उदयभाव जनित समवशरण की ऐसी अद्भुतता है, तो क्षायिकभाव जनित | आपके केवलज्ञान की अचिन्त्य महिमा का क्या कहना ? उस अद्भुत समवसरण के बीच प्रभु उससे भी अद्भुत शोभावान विराजते थे। देव, मनुष्य और तिर्यंच आपकी धर्मसभा में आ पहुँचे। प्रभु के दर्शन करके जीव वीतरागता की प्रेरणा प्राप्त करते थे और क्रूर प्राणी भी हिंसक भाव छोड़कर शान्त हो जाते थे। और स्तुति करते कि हे तीर्थंकर वासुपूज्य ! आप पुन: वासुपूज्य (इन्द्र द्वारा पूजित) बने और सहज दिव्यध्वनि द्वारा आपने जगत के भव्यजीवों को मोक्षमार्ग बतलाया। पहले बाल ब्रह्मचारी रहकर लाखों वर्ष तक आपने चम्पापुरी का राज किया, अब सर्वज्ञ होकर सारे जगत में ५४ लाख वर्ष तक धर्मसाम्राज्य का प्रवर्तन किया
और कितने ही जीवों को मोक्ष के मार्ग में लगाया। अहा, आपने जीवों को मोक्षमार्ग का जो सुख प्रदान किया उसकी महिमा का क्या कहना?"
हे देव ! आपकी धर्मसभा में 'धर्मवीर' आदि ६६ गणधर आपको वन्दन करते थे; १२ हजार पूर्वधारी || ११