________________
इक्ष्वाकुवंशी थे; उनकी महारानी का नाम जयावती था। आषाढ कृष्णा षष्ठी के उत्तम दिन जब उन जयावती महारानी ने सोलह मंगल स्वप्न देखे और तीर्थंकर वासुपूज्य का जीव स्वर्गलोक को छोड़कर माता जयावती
की कुक्षि में अवतरित हुआ। उससमय इन्द्रों ने आकर महाराजा वसुपूज्य तथा महारानी जयावती को | तीर्थंकर के माता-पिता होने के कारण सम्मान दिया । आपकी माता रत्नकुक्षिधारिणी बनीं, इतना ही नहीं,
समस्त चम्पानगरी रत्नवती बन गई। प्रभु के अवतार से बाह्य दरिद्रता तो दूर हुई थी तथा जो धार्मिक दरिद्रता |भरतक्षेत्र में आ गई थी वह भी नष्ट हो गई; क्योंकि प्रभु के अवतार से पूर्व और श्रेयांसप्रभु के शासन के | बाद करोड़ों-अरबों वर्ष तक भरतक्षेत्र में जैनधर्म का जो विच्छेद हो गया था, वह दूर हुआ और पुन: धर्मशासन प्रारम्भ हो गया।
भक्त भगवान वासुपूज्य को संबोधते हुए कह रहा है कि "हे देव ! फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी के दिन चम्पापुरी में आपका जन्म हुआ। आपके जन्म के हर्षोल्लास से देवलोक भी कम्पित हो उठा और इन्द्रासन डोलने लगा। देव और इन्द्रों ने आकर आपके जन्म का महोत्सव मनाया । धन्य हुई चम्पानगरी और धन्य हुआ भारतदेश! वासु अर्थात् इन्द्रों के द्वारा पूजित होने से आप सचमुच 'वासुपूज्य' थे और इन्द्र ने आपका नाम भी 'वासुपूज्य' रखा। आपका चरणचिह्न 'भैंसा' था। आपकी आयु बहत्तर लाख वर्ष थी। जन्माभिषेक के पश्चात् स्वयं इन्द्राणी ने स्वर्गलोक के आभूषणों से आपका शृंगार किया।
अरे, आपका शरीर तो स्वयमेव सर्वोत्कृष्ट सुन्दरता को प्राप्त था ही, उसकी शोभा के लिए आभूषणों की कहाँ जरूरत थी? आपकी शोभा कहीं उन आभूषणों से नहीं थी, उलटे आपके स्पर्श से वे आभूषण भी सुशोभित हो उठे। माता-पिता के हर्ष की तो कोई सीमा नहीं थी। आप जैसे बाल-तीर्थंकर जिनकी गोद में विराजते हों और आंगन में खेलते हों, उनके परमभाग्य की क्या बात! समस्त राज्य में गुण-वैभव की वृद्धि होने लगी।"
“यद्यपि आपके माता-पिता को पुत्रवधू का सुख देखने की अतिलालसा थी; परन्तु उन्हें आपने निराश || ११)