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उपयोग द्वारा चैतन्य की शान्ति में ही है" ऐसे वैराग्यमय विचार पूर्वक पद्मोतर राजा ने युगन्धरस्वामी से || जिनदीक्षा ली। अब राजा पद्मोतर मुनिराज पद्मोतर हो गए और आत्मध्यान में लवलीन रहने लगे। उनके | परिणामों की विशुद्धता भी वृद्धिंगत होने लगी। सोलह कारण भावना भाकर उन्होंने तीर्थंकर प्रकृति का | बन्ध किया।
तत्पश्चात् वे रत्नत्रय की अखण्ड साधना सहित समाधिमरण पूर्वक देह त्याग कर महाशुक्र स्वर्ग में इन्द्र हुए। इन्द्र पर्याय में सोलह सागर तक रहे। वहाँ पद्मलेश्या थी, सोलह हजार वर्ष में मानसिक आहार लेते थे। सदैव चैतन्यामृत का अनुभव होने से पौद्गलिक अमृत की अभिलाषा शान्त हो गई थी। अनेक देवांगनाओं के साथ रहने पर भी उनके साथ मात्र परस्पर मधुर शब्दों से ही उनकी वासनायें शान्त हो जाती थीं।
इससे सिद्ध होता है कि जिसका चित्त स्वयं तृप्त है, उसको बाह्य विषयभोग निरर्थक हैं। विषय-भोगों की ओर तो दुःखी आकुलित जीव ही दौड़ लगाते हैं।
शास्त्र कहते हैं कि 'चारों गतियों में दुःख ही दुःख है।' यद्यपि यह बात सही है; किन्तु यह अज्ञानियों की बात है। आत्मज्ञानी को तो सर्वत्र सुख ही सुख है; क्योंकि सुख का सागर तो स्वयं आत्मा है, बाहर विषयों में कहीं सुख नहीं है। यह उन्होंने जान लिया है। वहाँ अहमेन्द्र के भव में उन्होंने असंख्य तीर्थंकरों के पंच कल्याणक महोत्सव मनाये और स्वर्ग में धर्मचर्चा द्वारा कितने ही देवों को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हुई।
इसप्रकार आत्मसाधना सहित अपने महाशुक्र स्वर्ग के इन्द्र की पर्याय में तीर्थंकर वासुपूज्य के जीव ने असंख्यात वर्ष व्यतीत किए। जब उस देव के पृथ्वी पर आकर तीर्थंकर पर्याय में आने का समय हुआ तो कुबेर ने इन्द्र की आज्ञा से चम्पापुर में रत्नों की वर्षा की, जो उनके जन्म तक १५ माह बरसाये गये।
चम्पापुरी नगरी की शोभा अद्भुत तो थी ही; उसमें भरतक्षेत्र के बारहवें तीर्थंकर के रूप में वासुपूज्य का अवतार होना था, इसलिए उसकी शोभा में दिव्यता आ गयी। स्वयं कुबेर उस नगरी का श्रृंगार करने लगा। वह चम्पापुरी नगरी अंगदेश की राजधानी थी और वहाँ के महाभाग्यवान महाराजा थे वसुपूज्य । वे ॥ १४)