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________________ CREEFFFFy मुनिराज अपनी रुचि के अनुकूल सुहावने लगनेवाले पंचेन्द्रियों के विषयों में अनुराग नहीं करते, हर्षित नहीं होते तथा असुहावने लगनेवाले इन्द्रिय विषयों से द्वेष नहीं करते, घ्रणा या असंतोष प्रगट नहीं करते। दोनों परिस्थितियों में एक-सा साम्य भाव रखते हैं। इन्द्रिय विषयों से संबंधित उनके इस समताभाव को | पंचेन्द्रियजय मूलगुण कहा जाता है। | वीतरागी मुनिराज सदा त्रिकाल सामायिक, स्तुति, वन्दना, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग करते हैं, उनकी ये क्रियायें प्रतिदिन अवश्य करने योग्य होने से 'आवश्यक' कहलाती हैं। इन्हें भी मुनिराज सहज भाव से स्वाधीनता पूर्वक ही करते हैं। बाध्यता से नहीं। वस्तुत: मुनिराज की सहज जीवनचर्या-दिनचर्या का ही दूसरा नाम २८ मूलगुण है। मुनिराज की जो शुभभावरूप सहज बाह्य प्रवृत्ति होती है, वह २८ मूलगुण रूप ही होती है। अशुभभाव का तो उनके अस्तित्व ही नहीं होता। बस, यही दिगम्बर जैनमुनि की बाह्य पहचान है। ‘णमो लोए सव्व साहूणं' में मात्र इन्हीं को नमस्कार किया गया है। जब हम ‘णमो लोए सव्व साहूणं' पद बोलते हैं तब सच्चे साधु का उपर्युक्त साकार रूप हमारे मानस-पटल पर अंकित होता हुआ भासित होना चाहिए और आँखों के सामने मानो साक्षात् ऐसे संत खड़े हैं - ऐसा प्रतीत होना चाहिए। ऐसे मुनिधर्म के धारक सामान्य-साधु मुख्यरूप से तो आत्मस्वरूप को ही साधते हैं तथा बाह्य में २८ मूलगुणों को निरतिचार रूप से अखण्डित पालते हैं। समस्त आरंभ और अंतरंग व बहिरंग परिग्रह से रहित होते हैं। सदा ज्ञान-ध्यान में लवलीन रहते हैं। सांसारिक प्रपंचों से सदा दूर रहते हैं।" इसप्रकार युगन्धर जिनराज से साधु का स्वरूप सुनकर संसार की अनित्यता, अशरणता आदि का चिन्तवन करने लगे। उन्होंने संकल्प किया कि - "अपने चैतन्य के एकत्व से जो अबतक पराङ्मुख रहे, अब उसी के सन्मुख होकर आत्मा की साधना करेंगे। अरे! इन अस्थिर, क्षणभंगुर तथा आकुलता के || निमित्तरूप इन इन्द्रिय विषयों में क्या राग रखना ? ये कभी भी तृप्ति देनेवाले नहीं हैं। तृप्ति तो अन्तर्मुख ||११
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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