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| "मुनियों के संज्वलन कषाय संबंधी किंचित् राग होने से गमनादि क्रियायें होती हैं; किन्तु अन्य जीवों
को दुःखी करके अपना गमनादि प्रयोजन नहीं साधते । इसलिए स्वयमेव ही दया पलती है।" | इसीप्रकार उपर्युक्त कषायों का अभाव हो जाने से मुनिराज दूसरों को पीड़ाकारक कर्कश-निंद्य वचन कभी नहीं बोलते । जब भी बोलते हैं हित-मित-प्रिय और संशयरहित मिथ्यात्वरूप रोग को नाश करनेवाले वचन ही बोलते हैं। उनकी इसप्रकार की वाचिक क्रिया को भाषा समिति कहते हैं। ____ ध्यान, अध्ययन व तप में बाधा उत्पन्न करनेवाली क्षुधा-तृषा के लगने पर तपश्चरणादि की वृद्धि के लिए मुनिराज ४६ दोषों से रहित, ३२ अन्तराय और १४ मल दोष टालकर कुलीन श्रावक के घर दिन में
खड़े-खड़े एक बार जो अनुदिष्ट आहार करते हैं, उसे ऐषणा समिति कहते हैं। ___मुनिराज अपने शुद्धि, संयम और ज्ञानसाधन के उपकरण कमण्डलु-पीच्छी और शास्त्र को सावधानी पूर्वक इसतरह देख-भालकर उठाते-रखते हैं कि जिससे किसी भी जीव को किंचित् भी बाधा न हो 'मुनि की इस प्रमादरहित क्रिया को आदान-निक्षेपण समिति कहते हैं।
साधु ऐसे स्थान पर मल-मूत्र एवं कफ आदि क्षेपण करते हैं, जो स्थान निर्जन्तुक हो, अचित्त हो, ॥ एकान्त हो, निर्जन हो, पर के अवरोध (रोक-टोक) से रहित हो तथा जहाँ बिल व छिद्र न हों। उनकी यह क्रिया प्रतिष्ठापना समिति कहलाती है।
यहाँ ज्ञातव्य है कि ये सब क्रियायें साधु के जीवन में सहज होती हैं। उन्हें ये क्रियायें खेंच कर और सोच-सोचकर नहीं करनी पड़ती हैं। वे क्रियायें उनके जीवन चर्या के अभिन्न अंग बन जाती हैं, इसकारण उनके पालन में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती; बल्कि ऐसा करते हुए वे समय-समय में हर अन्तर्मुहूर्त में स्वरूप स्थिर होकर अकथनीय आनन्द का अनुभव करते हैं।
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१. मोक्षमार्ग प्रकाशक, २२८