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वासुपूज्य अपने पूर्वभव में पुष्करवर द्वीप में रत्नपुरी नगरी के महाराजा थे, तब आपका नाम पद्मोतर था । आपकी रत्नपुरी नगरी में सम्यक्त्वादि रत्न के धारक धर्मात्मा जीव निवास करते थे। आप प्रजा के लिए कल्पवृक्ष के समान थे। शास्त्रों के मर्मज्ञ थे और जैनधर्म की उपासना द्वारा आत्मतत्त्व को जानकर मोक्षमार्ग में अग्रसर थे। आपकी नगरी में धार्मिक और नैतिक वातावरण था । धर्मात्माओं और गुणीजनों के प्रति आपका श्रद्धा एवं वात्सल्य भाव था तथा मोक्ष की पूर्ण साधना के लिए संयम की भावना भी आपके चित्त में सदैव वर्तती थी ।
“उपादान के अनुसार निमित्त तो सहज मिल ही जाते हैं, इस उक्ति के अनुसार राजा पद्मोतर को भी एक बार ऐसे उत्तम निमित्त का सुयोग मिला कि उनकी रत्नपुरी के मनोहर उद्यान में ही युगन्धर जिनराज का शुभागमन हुआ ।
परमभक्तिभाव से जिनराज के दर्शन करने से राजा पद्मोतर का चित्त अतिप्रसन्न हुआ । प्रभु की वाणी | से महाराज पद्मोतर ने सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र रूप मोक्षमार्ग का उपदेश सुना। उसमें साधु की वीतरागता का स्वरूप सुनकर वे गद्गद् हो गये। साधु के स्वरूप में कहा जा रहा था कि “जिनके विषयों की आशा समूल समाप्त हो गई है, जो हिंसोत्पादक आरंभ और परिग्रह से सर्वथा दूर ही रहते हैं तथा ज्ञान-ध्यान व तप में लीन रहते हुए निरन्तर निजस्वभाव को साधते हैं, वे साधु परमेष्ठी हैं।
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साधु परमेष्ठी की नियमित सहज आचरणीय दैनिक चर्या को साधु के मूलगुण कहे गये हैं, वे पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय विजय, छह आवश्यक और शेष सप्त गुण इसप्रकार २८ मूलगुण हैं । | तात्पर्य यह है कि साधु की दैनिक सहज चर्या को २८ मूलगुण कहते हैं, न कि वे २८ मूलगुणों को भारभूत | पालते हैं। साधु परमेष्ठी के पास संयम का उपकरण पिच्छी, शुद्धि का उपकरण कमण्डल एवं ज्ञान का उपकरण शास्त्र के सिवाय अन्य किसी भी प्रकार के वस्त्रादि परिग्रह नहीं होते हैं ।
१. विषयाशावशातीतो निरारम्भो परिग्रहः, ज्ञान-ध्यान- तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते | रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक-१०