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वस्तुस्वातंत्र्य सिद्धान्त महा, कण-कण स्वतंत्र बतलाता है। फिर कोई किसी का कर्ता बन, कैसे सुख-दुःख का दाता है? हो वीतराग सर्वज्ञ हितंकर, अत: बन गये परम पूज्य ।
सौ इन्द्रों द्वारा पूज्य प्रभो! इसलिए कहाये वासुपूज्य ।। हे प्रभो ! लोक में गंगा नदी की पूजा गंगाजल से होती है, सूर्य की पूजा दीपक से होती है; अत: मैं भी आपके केवलज्ञान की पूजा अपने अल्पज्ञान से करता हूँ। आपने जगत को न केवल जन-जन की, बल्कि कण-कण की स्वतंत्रता का सिद्धान्त बताया है और यह भी बतलाया है कि जगत में एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता-धर्ता-हर्ता नहीं है, इसलिए यह तो मैं मंगल कामना कर नहीं सकता कि आप हमें सुख प्रदान करें; पर मैं इतना जानता हूँ कि यदि मैं आपके वीतरागी व्यक्तित्व को पहचान लूँ, सर्वज्ञ स्वभाव को जान लूँ तो आप तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर सर्व हितंकर बनने में समर्थ निमित्त बनते हो, अत: मैं आपको शत्-शत् वन्दन करता हूँ। प्रभो ! आप सौ-सौ इन्द्रों के द्वारा वन्दनीय हो; इसलिए आपका वासुपूज्य नाम सचमुच सार्थक है।
वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों में पाँच तीर्थंकर बालयति हुए हैं, उनमें एक आप भी हैं। आपके पाँचों कल्याणक अंगदेश की नगरी चम्पापुरी में हुए हैं, इसकारण वह क्षेत्र भी परमपूज्य बन गया है। वहाँ की वन्दनार्थ जो जाते हैं, उन्हें ऐसा लगता है कि बालयति वासुपूज्य सिद्धालय में हमारे मस्तक पर ही विराजमान हैं।
ऐसे परम पूज्य तीर्थंकर वासुपूज्य के पूर्वभवों का परिचय कराते हुए आचार्य गुणभद्र कहते हैं कि || ११