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१४३ | बढ़ाने में जुड़ती रहती हैं। उन उपलब्धियों का मूल कारण पंचपरमेष्ठी के प्रसाद से प्राप्त कषाय की सहज | | मन्दता एवं उससे प्राप्त पुण्य का उदय है, बस यही णमोकार मंत्र का चमत्कार है।
मोक्षमार्ग के उपदेश में श्रेयांसनाथस्वामी की दिव्यध्वनि में आया कि "हे भव्य जीवो! जैस चेतना स्वभाव हमारे आत्मा का है वैसा ही तुम्हारे आत्मा का है एवं सुख के निधान उसी से भरे हैं, अत: सुख | की अनुभूति हेतु स्वयं अपने आत्मा को देखें।"
यह सुनकर अनेक निकट भव्य श्रोताओं ने उत्साहित हो आत्मावलोकन का अन्तर्मुखी पुरुषार्थ करके सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया। अनेकों रत्नत्रय धारण कर मुनि हो गये।
भगवान श्रेयांसनाथ ने भरत क्षेत्र के अनेक देशों में इक्कीस लाख वर्ष तक समोशरण सहित विहार किया। धर्म देशना द्वारा करोड़ों जीवों को कल्याण मार्ग में लगाया। अन्त में आयु का एक मास शेष रहने पर सम्मेदशिखर की संकुल कूट पर पधारे। वहाँ वाणी रुक गई। श्रावण पूर्णिमा के दिन अन्तिम दो शुक्ल ध्यानों द्वारा शेष कर्म भी क्षय हो गये और उनका निर्वाण हो गया। देवों द्वारा उनका मोक्षकल्याणक महोत्सव मनाया गया।
जो पूर्वभव में विदेह क्षेत्र में नलिन राजा थे, वही वहाँ से सोलहवें स्वर्ग में अहमिन्द्र हुए। पश्चात् ग्यारहवें तीर्थंकर के रूप में सिंहपुर में अवतरित होकर जीवों के कल्याण में निमित्त बन कर अन्त में सम्मेदशिखर से मुक्त हुए।
कितने सुखी हैं वे यह रूप-लावण्य सचमुच कोई गर्व करने जैसी चीज नहीं है। इतना और ऐसा पुण्य तो पशुपक्षी भी कमा लेते हैं, फुलवारियों के फूल भी कमा लेते हैं, वे भी देखने में बहुत सुन्दर लगते हैं; पर कितने सुखी हैं वे ?
- इन भावों का फल क्या होगा, पृष्ठ-५३
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