________________
१४३|| में ७ और पाँचवें - ‘णमो लोए सव्व साहूणं' पद में ९ अक्षर हैं। इसप्रकार कुल ७.५.७+७+९=३५ अक्षर
|| हुए। इनमें ३० तो स्वरसंयुक्त व्यंजन हैं और ५ स्वतंत्र स्वर हैं। इनके स्वर व व्यंजनों का विश्लेषण करके || देखें तो इनमें से मंत्रशास्त्र के व्याकरण के नियमानुसार प्रथम पद के अरहंताणं के "अ" का लोप हो जाता
है, अत: स्वर ३४ एवं स्वर संयुक्त व्यंजन ३० हैं, इसप्रकार कुल मिलाकर इस मंत्र में ६४ अक्षर होते हैं | और पूरी वर्णमाला में भी ६४ अक्षर होते हैं।
इसतरह वर्णमाला की संख्या की अपेक्षा भी इस महामंत्र में द्रव्यश्रुत की पूरी वर्णमाला आ जाती है।
अत: द्रव्यश्रुत की सम्पूर्ण वर्णमाला की दृष्टि से भी णमोकार मंत्र का जाप करने से द्वादशांग का पारायण (पाठ) हो जाता है। इस अपेक्षा से भी णमोकार मंत्र को सम्पूर्ण द्वादशांग का संक्षिप्त संस्करण कहा जा सकता है; परन्तु यह अपेक्षा जिनागम में अत्यन्त गौण है; क्योंकि जैनधर्म आत्मा का धर्म है, इसमें भावों की प्रधानता है, तत्त्वज्ञान की मुख्यता है। आत्मा के योग व उपयोग के स्वभावसन्मुख हुए बिना, तत्त्वज्ञान हुए बिना केवल मंत्रोच्चारण अधिक कार्यकारी नहीं होता; अत: णमोकार मंत्र के माध्यम से पंच-परमेष्ठी के स्वरूप का अवलम्बन लेकर जो व्यक्ति अपने आत्मा में अपना उपयोग स्थिर करता है, वही इस मंत्र के असली लाभ से लाभान्वित होता है। ___यद्यपि पुराणों में प्रयोजनवश प्रथमानुयोग की कथन पद्धति के अनुसार णमोकार मंत्र के माहात्म्य के वर्णन एवं तत्संबंधी कथाओं में अनेक जगह यह भाव प्रगट किया गया है कि - इस महामंत्र के स्मरण से समस्त लौकिक कामनाओं, सुख-समृद्धियों की पूर्ति होती है तथा परलोक से स्वर्गादि की सुख-सम्पदायें प्राप्त होती हैं; किन्तु वस्तुत: वह लौकिक विषय-कषाय जनित कामनाओं की पूर्ति का मंत्र नहीं, बल्कि उन्हें समाप्त करनेवाला महामंत्र है। वस्तुत: देखा जाय तो इस महामंत्र के विवेकी आराधकों के लौकिक कामनायें होती ही नहीं हैं, होना भी नहीं चाहिए; क्योंकि इसमें जिन्हें स्मरण व नमन किया गया है, वे सभी स्वयं वीतरागी; महान आत्मायें हैं, वे न किसी का भला-बुरा करते हैं, न कर सकते हैं। पंचपरमेष्ठी की || १०
CREEFFFFy
Esto FRE