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________________ || में वीतरागी पंच परमेष्ठी को नमस्कार किया गया है। न तो इसमें बीजाक्षरों का प्रयोग हुआ है और न कुछ || गुह्य ही है, सबकुछ एकदम स्पष्ट है। | लौकिक कामनाओं से ग्रस्त चमत्कारप्रिय जगत को ऐसा लगता है कि यह कैसा महामंत्र है, जिसमें | न तो “ॐ ह्रां ह्रीं" आदि वीजाक्षरों का घटाटोप है और न संकटों के मोचन एवं सम्पत्तियों के उपलब्धि || की ही चर्चा है। सर्वसुलभ इस महामंत्र में ऐसा क्या है, जिसके कारण यह साधारण-सा मंगलाचरण | सर्वमान्य महामंत्र बन गया, कोटि-कोटि कण्ठों का कण्ठहार बन गया ? यह तो सर्व विदित ही है कि इस महामंत्र की सरलता, सहजग्राह्यता एवं निष्काम वन्दना ही इसकी | महानता का मूल कारण है। मात्र इस महामंत्र की ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण वीतरागी जैनदर्शन की भी यही महानता है कि वह कामनाओं की पूर्ति में नहीं, बल्कि कामनाओं के नाश में आनन्द मानता है; विषयभोगों की उपलब्धि में नहीं, उनके त्याग में आनन्द मानता है। जगत के सहज स्वाभाविक परिणमन को वस्तु का स्वभाव माननेवाले अकर्तावादी जैनदर्शन में चमत्कारों को कोई स्थान नहीं है। वीतरागी पंच-परमेष्ठियों के उपासक सच्चे जैन वीतरागी भगवान से वीतरागता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहते हैं - जैनदर्शन का यह परम सत्य ही इस महामंत्र में प्रस्फुटित हुआ है। इस महामंत्र की महिमावाचक जो सर्वाधिक प्राचीन एवं सर्वाधिक प्रचलित गाथा उपलब्ध होती है, उसमें भी यही कहा गया है कि “यह मंत्र सब पापों का नाश करनेवाला और सब मंगलों में पहला मंगल है।" इस गाथा के किसी भी शब्द से यह व्यक्त नहीं होता है कि यह महामंत्र शत्रुविनाशक या विषयभोग प्रदाता है। यह महामंत्र शत्रुनाशक तो नहीं, शत्रुता नाशक अवश्य है; इसीप्रकार विषयभोग प्रदाता तो नहीं, विषयवासना विनाशक अवश्य है। यह महामंत्र भौतिक मंत्र नहीं है, आध्यात्मिक महामंत्र है; क्योंकि उसमें आध्यात्मिक पराकाष्ठा को प्राप्त पंच परमेष्ठियों को स्मरण किया गया है; अत: इसकी महानता भी भौतिक उपलब्धियों में नहीं, आध्यात्मिक चरमोपलब्धि में है। अत: इसका उपयोग भी भौतिक उपलब्धियों की कामना से न किया ॥ १०
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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