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अहा! उन परम वीतरागी मुनिराज श्रेयांसनाथ की परमशांत मुद्रा के दर्शन कर इन्द्र, देव, मनुष्य और तिर्यंच भी अपने चित्त में अनुपम शान्ति का अनुभव करने लगे। सिंह और शशक, सर्प और नेवला अपना बैर भाव छोड़कर मुनिराज के चरणों में एकसाथ बैठ गये। किसी के मन में क्रूरता एवं भय नहीं था।
सभी अपनी क्रूरता और भय को भूलकर अत्यन्त शान्ति से प्रभु की वीतराग छवि निहार रहे थे। उससमय हजारों लोगों ने वैराग्य भावना से विभोर होकर श्रावक के व्रत लिए और अनेक जीवों ने आत्मज्ञान प्राप्त किया। धन्य हुआ मुनिराज श्रेयांसनाथ का दीक्षा कल्याणक महोत्सव, जिसके निमित्त से लाखों जीवों का कल्याण हुआ।
ध्यानस्थ मुनिराज श्रेयांस को सातवाँ गुणस्थान, दिव्य मन:पर्ययज्ञान तथा सात महाऋद्धियाँ प्रगट हुईं। दो दिन उपवास के बाद मुनि श्रेयांस आहारचर्या को निकले। सिद्धार्थ नगर में नन्द राजा ने भक्ति सहित प्रथम पारणा कराया। राजा के पुण्योदय से देवों ने दुन्दुभि वाद्य बजाये और रत्नवृष्टि की।
महामुनि श्रेयांस ने लगभग दो वर्ष तक मौन साधनापूर्वक विहार किया। तत्पश्चात् पुन: अपनी जन्म नगरी सिंहपुर (सारनाथ) पधारे। जिस मनोहर उद्यान में दीक्षा ली थी उसी एक उद्यान में एक के नीचे दो दिन उपवास रखकर ध्यानस्थ हुए और परमशान्त भाव से शुद्धोपयोग द्वारा विकारों का शमन करते हुए वीतरागी हो गये तथा केवलज्ञान को प्राप्तकर सर्वज्ञ परमात्मा बन गये।
केवलज्ञानकल्याणक का महोत्सव मनाने हेतु इन्द्रगण सिंहपुरी नगरी में पहुँचे । एक ही नगरी में तीर्थंकर श्रेयांसनाथ के चार कल्याणक हुए। धन्य है वह नगरी, जिसे चार-चार कल्याणक मनाने का मंगल अवसर मिला। दो घड़ी में इन्द्र द्वारा समोशरण की रचना हो गई। तीर्थंकर प्रभु की धर्मसभा में भव्य जीवों का समूह आया, जिसमें देव, मनुष्य, तिर्यंच आदि सभी आये और शान्ति से धर्मोपदेश सुनने लगे। __ तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ की दिव्यध्वनि में आया - “सम्पूर्ण जैनसमाज में सर्वाधिक श्रद्धास्पद, करोड़ों कण्ठों से प्रतिदिन अनेकानेक बार उच्चरित इस णमोकार महामंत्र में सीधे-सादे अनलंकृत शब्दों ॥ १०
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