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| उत्तम पदार्थों की प्राप्ति तो उन्हें स्वत: हो जाती थी। इसलिए उन्हें अर्थ प्राप्ति हेतु कुछ नहीं करना पड़ता था। | मात्र मोक्ष हेतु ही उन्हें पुरुषार्थ करना था, जिसे वे राज्य संचालन के साथ करते ही रहते थे।
इसप्रकार महाराजा श्रेयांस ने अपनी गुप्त ज्ञाननिधि की सुरक्षापूर्वक ब्यालीस लाख वर्षों तक सुख से राज्य किया। चौरासी लाख वर्ष की आयु में से तीन भाग अर्थात् त्रेसठ लाख वर्ष बीत गये।
एकबार महाराजा श्रेयांसनाथ वनक्रीड़ा उद्यान में गये। माघ का महीना था। वसंत ऋतु का आगमन | निकट होने से वृक्षों के पत्ते गिर गये, पुष्प पत्रों से रहित होकर वृक्षों की शोभा लुप्त हो गई। वे सोचने लगे
- यह पुण्य वैभव भी क्षणभंगुर है मेरे संयोग भी छूट जायेंगे। जबतक मैं अपने असंयोगी सिद्धपद की साधना | नहीं करूँगा; तबतक इस संसार में कहीं स्थिरता नहीं है। आज ही ऐसे अस्थिर संसार को छोड़कर मैं मुनि | होऊँगा और अपने सिद्धपद की साधना करूँगा। पतझड़ जैसे इस पुण्य के भरोसे में बैठा नहीं रहूँगा । ध्रुवपद
ही मेरा सिद्धपद है, उसे साधकर सादि-अनन्त काल तक उसमें बैलूंगा। | इसप्रकार महाराजा श्रेयांस की वैराग्यधारा वेगवती होती गई। उनकी चेतना सातवें गुणस्थान में आरोहण || करने हेतु तत्पर हुई और वे श्रेयस्कर नामक पुत्र को राज्य सौंपकर बारह भावनाओं का चिन्तवन करते हुए जिनदीक्षा हेतु उद्यमी हुए।
उसीसमय ब्रह्मलोक से लौकान्तिक देव आये, उन्होंने वैरागी श्रेयांस को वन्दन किया और वैराग्यवर्द्धक स्तुति करते हुए कहा - "अहो देव ! आप अपने नाम के अनुसार ही श्रेयरूप हैं और श्रेयमार्ग पर अग्रसर हो रहे हैं; अत: आपके इस कार्य की हम अनुमोदना करते हैं। उस अवसर के अनुकूल विमलप्रभा पालकी लेकर देवों सहित इन्द्र वहाँ आ गये और वैरागी राजा श्रेयांस उस पालकी में आरूढ़ हुए। पहले उस पालकी को मानवों ने उठाया, फिर देवगण उस पालकी को लेकर उद्यान में पहुँचे और वस्त्राभूषण आदि समस्त राज वैभव का त्याग किया। नम: सिद्धेभ्यः कहकर सिद्ध भगवन्तों को स्मरण करके स्वयंभू मुनीश्वर श्रेयांसनाथ ने केशलुंचन किया। पश्चात् एकत्व भावना में झूलते हुए आत्मचिन्तन में एकाग्र हुए तथा उसी क्षण चिदानन्द तत्त्व में लीन होकर शुद्धोपयोगरूप परिणमित हो गये।