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(९३६|| विक्रिया से हजार नेत्र बनाये और दर्शन करते हुए हर्षोल्लास से भरकर ताण्डव नृत्य किया, जिसे देख प्रजा ||
हर्ष-विभोर हो गई। । राजा ने पुत्र जन्म की खुशी में याचकों को देवों द्वारा बरसाये रत्नों का भरपूर दान देकर और महोत्सव | में आये इन्द्रादि देवताओं को और मानवों को यथायोग्य सम्मान देकर विदा किया।
श्रेयांसनाथ तीर्थंकर का अवतार होते ही जीवों का श्रेय प्रारंभ हो गया। उनसे पूर्व भरतक्षेत्र में असंख्य | वर्षों तक जैनधर्म की धारा विच्छिन्न हो गई थी। इन्द्र उन्हें श्रेयांसनाथ नाम दें उससे पूर्व ही प्रभु के निमित्त
से जीवों का श्रेय प्रारंभ हो गया। उनके चरण में गेंडा का चिह्न था। जिसप्रकार गेंडा का शरीर शस्त्रों से | नहीं भिदता, उसीप्रकार श्रेयांसनाथ के अभेद्य अनेकान्त शासन को किसी भी एकान्तवादी कुचक्र से नहीं || भेदा जा सकता था। | इन्द्र ने जन्माभिषेक करने के बाद स्तुति करते हुए कहा कि - "हे देव! आप इस अवतार में ही सर्वज्ञ | परमात्मा होंगे और रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग का उपदेश देकर अनेक जीवों का श्रेय करेंगे, कल्याण करेंगे। आप | जीवों के हितरूप मोक्षमार्ग के पोषक हैं, इसलिए आपका श्रेयांसनाथ नाम सार्थक है।"
कुमार श्रेयांसनाथ मात्र सिंहपुरी के ही नहीं, अपितु समस्त काशी देश के गौरव थे और उनके कारण काशी देश सारी दुनिया में प्रसिद्ध था। काशी देश की प्रजा ने सुपार्श्वनाथ और चन्द्रप्रभ के बाद इन बाल तीर्थंकर को ही अपनी नगरी में क्रीड़ा करते देखा था। उनके मुँह से निकला - 'हमारा जीवन धन्य है, जो ऐसे तीर्थंकर प्रभु के काल में हमारा जन्म हुआ है।
आनन्दपूर्वक वृद्धिंगत होते-होते जब राजकुमार श्रेयांसनाथ युवा हुए तो उनके माता-पिता ने विधिवत् विवाह किया और राज्याभिषेक करके उन्हें सिंहपुरी के राजसिंहासन पर बिठाया। यद्यपि वे धर्मात्मा राजकुमार चैतन्यसुख की श्रेष्ठता के समक्ष उस पुण्य से प्राप्त भोग सामग्री को तुच्छ ही समझते थे। तथापि उन जैसा पुण्य का प्रताप भी किसी के पास नहीं था।
वे मात्र बाह्य समृद्धि में ही नहीं; अपितु अंतरंग श्रेय मार्ग में भी वृद्धिंगत थे। उनके पुण्य प्रताप से समस्त ॥ १०
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