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सामान्यरूप से तो पाक्षिक श्रावक में सामान्य श्रावक के सभी लक्षण पाये जाते हैं, भले ही सम्यग्दृष्टि इन्द्रियभोगों और त्रस-स्थावर हिंसा से पूर्णत: विरक्त नहीं है, पर जिनधर्म का श्रद्धानी होने से उनमें प्रवृत्त एवं ला | अनुरक्त भी नहीं रहता। जो भी प्रवृत्ति देखी जाती है, उसमें उसे खेद वर्तता है, त्यागने की भावना रहती है।
“सामान्य श्रावक को भी अत्यावश्यक-अनिवार्य एकेन्द्रिय जीवों के घात के सिवाय अवशेष एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा नहीं करना चाहिए और खरकर्म आदि सावध कर्म तो कभी करना ही नहीं चाहिए।"
सावध का सामान्य अर्थ है हिंसाजनक प्रवृत्ति । यद्यपि पूजा एवं जिनमंदिर का निर्माण आदि कार्य भी सावध है, पर ये धर्म के सहकारी व आयतन होने से कथंचित् ग्राह्य कहे गये हैं; परन्तु खरकर्म आदि जो लौकिक सावध व्यापार है, जिनमें बहुत जीवघात होता है, वे तो सर्वथा त्याज्य ही हैं। ___पाक्षिक श्रावक जिनेन्द्रदेव संबंधी आज्ञा का श्रद्धान करता हुआ हिंसा को छोड़ने के लिए सबसे पहले मद्य-मांस-मधु और पंच-उदुम्बर फलों को छोड़ देता है। अपनी शक्ति को नहीं छिपानेवाला यह पाक्षिक श्रावक पाप के भय से स्थूल हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह के त्याग का अभ्यास करता है। यह पाक्षिक श्रावक देवपूजा आदि श्रावक के षट् आवश्यक कर्तव्यों को शक्ति के अनुसार नित्य करता है। सामान्यत: रात्रिभोजन का त्यागी होता है, किन्तु कदाचित् रात्रि में ताम्बूल लवंगादि ग्रहण कर लेता है। आरंभ आदि में संकल्पी हिंसा नहीं करता।
सावयधम्म दोहा के २४२ वें दोहे में कहा जायेगा कि पाक्षिक श्रावक मद्य-मांस-मधु का परिहार करता है, पंच-उदुम्बर फलों को नहीं खाता, क्योंकि इन आठों के अन्दर भारी त्रसजीव उत्पन्न होते हैं।"
उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि मूलगुणों का कथन भले ही चारित्र के प्रकरण में किया गया हो, पर ये || होते तो अव्रती की प्राथमिक भूमिका में ही है। इसकारण यद्यपि ये मूलगुण संयम या चारित्र नहीं है, फिर भी महत्त्वपूर्ण है और अत्यन्त आवश्यक है। १. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक-७१ २. सावयधम्म, दोहा-२४२
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