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१३०| और यहाँ लाठी संहिता में पाण्डे राजमल्लजी का भी यही कहना होगा कि मद्य-मांस-मधु व पंच| उदुम्बर फलों का त्याग तो जैनकुल में जन्म से ही होता है; अत: इस कुल की मर्यादा का निर्वाह तो प्रत्येक जैन को हर हाल में करना ही चाहिए। उक्त संदर्भ में प्रश्नोत्तर शैली में किया गया उनका निम्नांकित कथन द्रष्टव्य होगा।
कदाचित् यहाँ कोई प्रश्न करे-शंका प्रगट करे कि जब कोई भी जैनी साक्षात् मद्य-मांस-मधु का सेवन करता ही नहीं है तो इतने मात्र से ही जैनों के इन आठों का त्याग सिद्ध नहीं होता ? इसप्रकार सिद्ध साधन होने से इन वस्तुओं को त्याग करानेवाला यह उपदेश क्या निरर्थक नहीं है?
इसका समाधान प्रस्तुत करते हुए ग्रन्थकार स्वयं कहेंगे - नहीं, ऐसा नहीं है; क्योंकि यद्यपि जैनी इनका | साक्षात् भक्षण नहीं करते; तथापि उनके कितने ही ऐसे अतिचार (दोष) हैं, जो अनाचार के समान हैं, इसलिए धर्मात्मा जीवों को उन अतिचारों का त्याग भी अवश्य करना चाहिए। उदाहरणार्थ - १. चमड़े के पात्र में रखे घी, तेल, पानी आदि अखाद्य-पदार्थ, अपेय-पदार्थ, विधे हुए-घुने हुए अनाज, जिनमें त्रसजीव पैदा हो जाते हैं, इन सबमें मांस खाने का दोष है, क्योंकि इनमें त्रस जीवों का मांस मिला होता है।
२. मूलगुणों में जो रात्रिभोजनत्याग को सम्मिलित किया गया है, उसके संबंध में भी निम्नांकित कथन || द्रष्टव्य है -
मूलगुणों के धारण करने में जो रात्रिभोजन का त्याग है, वह अतिचार सहित है, उसमें अतिचारों का | त्याग शामिल नहीं है। जबकि रात्रिभोजनत्यागप्रतिमा में अतिचार रहित त्याग होता है।
मूलगुणों में रात्रिभोजनत्याग की सीमा का उल्लेख करते हुए कहा जायेगा कि - इस व्रत में रात्रि में केवल अन्नादि स्थूल भोजनों का त्याग है, इस भूमिका में पान, जल तथा औषधि आदि का त्याग नहीं है।"
श्रावक को देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप एवं दान - ये षट्कर्म प्रतिदिन करनेयोग्य हैं। ||
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