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| अष्ट मूलगुणों के धारी सामान्य श्रावक की सच्चे देव-शास्त्र-गुरु में अटूट श्रद्धा होती है। वह मद्य| मांस-मधु व पंच पापों के स्थूल त्याग के साथ दुर्गति का कारणभूत गृहीत मिथ्यात्व का भी त्याग कर | देता है; अत: वह रागी-द्वेषी देव, सग्रंथ गुरु एवं उनके उपासकों की पूजा-उपासना एवं वन्दना नहीं करता। | सच्चे धर्म का पक्षमात्र होने से उसे पाक्षिक श्रावक भी कहते हैं। श्रावक के छह आवश्यक कर्तव्यों में सत्पात्र | दान और जिनेन्द्र पूजा मुख्य कर्तव्य है। "दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मो न तेण बिणा"
यद्यपि पाक्षिक श्रावक किसी व्रत का पालन नहीं करता, इस कारण वह अव्रती है, पर जिनधर्म का पक्ष होने से वह श्रावक के मूलगुणों का पालन अवश्य करता है। मूलगुणों का पालन किए बिना कोई नाममात्र से भी श्रावक नहीं कहला सकता।
"जो मनुष्य सम्यग्दर्शन सहित अष्ट मूलगुणों का धारी एवं सप्त व्यसन का त्यागी हो, उसे दार्शनिक श्रावक कहा गया है।"
यद्यपि पण्डित टोडरमलजी मोक्षमार्ग प्रकाशक के छटवें अध्याय में “कुल द्वारा गुरुपने मानने को मिथ्याभाव" कहेंगे, पर वह अपेक्षा जुदी है और पाण्डे राजमल्लजी ने जो उपर्युक्त श्लोक में मद्य-मांसमधु के त्याग को कुलधर्म की संज्ञा देकर इन्हें त्यागने की प्रेरणा दी है - यह अपेक्षा जुदी है। दोनों में जमीन-आसमान जैसा महान अन्तर है। ___ पण्डित टोडरमलजी ने जहाँ/जिस प्रकरण में कुल धर्म का निषेध किया होगा, वहाँ तो अत्यन्त स्पष्टरूप से अन्य मतावलम्बियों की कुल परम्परा से गुरुपना मानने संबंधी उस मान्यता का निषेध किया है, जिसमें वे हीन आचरण करते हुए भी अपने को केवल कुल द्वारा श्रेष्ठ मानते व मनवाते हैं। ___ वहाँ उनका कहना है कि "हमारा कुल ही ऊँचा है, इसलिए हम सबके गुरु हैं।" पर कुल की उच्चता तो धर्मसाधन से है। यदि कोई उच्चकुल में जन्म लेकर हीन आचरण करे तो उसे उच्च कैसे माने ? आदि। टिप्पणी - १. कषायपाहुड़, अमितगति श्रावकाचार, सागार धर्मामृत, पाण्डे राजमलजी आदि के उद्धरण दृष्टव्य हैं।
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