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। दूसरे प्रकार में बारह व्रतों को आधार बनाकर श्रावकधर्म का प्रतिपादन करनेवाले आचार्यों में स्वामी समन्तभद्राचार्य प्रमुख होंगे।
आचार्य समन्तभद्र श्रावकधर्म का वर्णन बारह व्रतों के आधार पर ही करेंगे। अत: व्रतों के बीच में वे मूलगुणों का वर्णन भी करेंगे। वे मूलगुणों का उल्लेख किये बिना नहीं रह सकेंगे। वे रत्नकरण्ड श्रावकाचार के तीसरे अध्याय के अन्त में बिना प्रसंग के ही एक श्लोक में मूलगुणों का नाम मात्र उल्लेख करेंगे।
उसमें वे मद्य-मांस-मधु के साथ पंच उदुम्बर फलों के त्याग को न कहकर पाँच पापों के त्याग की | बात कहेंगे; क्योंकि पाँच पापों के स्थूल त्याग बिना हो ही नहीं सकते।
यद्यपि वे स्वयं कोई टिप्पणी नहीं करेंगे, कोई खुलासा भी नहीं करेंगे, पर उन्हीं के अनन्यतम शिष्य आचार्य शिवकोटि के कथन से इस बात की पुष्टि होगी कि उससमय पंच-उदुम्बर फलों के त्याग की बात भी मूलगुणों के संदर्भ में चलेगी, जिसका बाद के आचार्य उल्लेख करेंगे।
आचार्य शिवकोटि लिखेंगे कि मद्य-मांस-मधु व पंच उदुम्बर फलों का त्याग तो अबोध बालकों या अज्ञ पुरुषों के भी होता है, विवेकी जन के तो पाँचों पापों का स्थूल त्याग भी होना ही चाहिए।
इस कथन से भी यह बात सिद्ध होगी कि मद्य-मांस-मधु व पंच उदुम्बर फलों का त्याग तो गृहस्थ की प्राथमिक भूमिका में ही हो जाना चाहिए। भले ही उनका वर्णन चारित्र के प्रकरण में ही क्यों न हो?
श्रावकधर्म के प्रतिपादन का तीसरा प्रकार है - पक्ष, चर्या और साधन - इस आधार पर श्रावकधर्म का प्रतिपादन करनेवाले आचार्य जिनसेन (द्वितीय) होंगे। यद्यपि वे भी श्रावकाचार पर कोई स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं लिखेंगे, पर महापुराण के ३९वें एवं ४०वें पर्व में वे पक्षचर्या व साधनरूप से श्रावकधर्म का निरूपण करेंगे। जो इसप्रकार है - पाक्षिक :-जिसे अरहंतदेव का पक्ष हो, जो जिनेन्द्र के सिवाय किसी अन्य रागीद्वेषी देव को, निर्ग्रन्थ गुरु के सिवाय किसी अन्य सग्रन्थ गुरु को और वीतरागधर्म के सिवाय किसी अन्य ||
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