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अहा! एक साथ हजारों केवली और लाखों मुनियों के सत्समागम का वह मंगलमय दृश्य मुमुक्षुओं के चित्त में मोक्ष साधना की भावना को जाग्रत करता था । वहाँ तीन लाख आर्यिकायें और पाँच लाख श्रावकश्राविकायें भी प्रभु का उपदेश सुनकर आनन्दपूर्वक मोक्षमार्ग में अग्रसर थे। देवों का तो कहना ही क्या ? कितने ही तिर्यंच भी प्रभु के दर्शन करके तथा धर्मोपदेश सुनकर आत्मज्ञान प्राप्त करके अन्तरात्मा होकर परमात्मपद की साधना करते थे ।
एक जिज्ञासु को जिज्ञासा जगी - "अभी तो प्रभु का साक्षात् लाभ मिल रहा है। भगवान महावीरस्वामी के बाद कलिकाल में श्रावकधर्म का प्रतिपादन कैसा होगा और कौन करेगा ?
प्रभु की दिव्यध्वनि में आया - हे भव्य ! मूलगुणों के संदर्भ में भगवान महावीर के लगभग दो हजार वर्ष बाद जैन वाङ्गमय में श्रावकधर्म का वर्णन मुख्यत: तीन प्रकार से मिलेगा
१. ग्यारह प्रतिमाओं को आधार बनाकर ।
२. बारह व्रतों एवं सल्लेखना को आधार बनाकर ।
३. पक्ष, चर्या और साधन को आधार बनाकर ।
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इन तीनों प्रकारों में प्रथम प्रकार के आधार पर प्रतिपादन करनेवाले आचार्यों में आचार्य कुन्दकुन्द, स्वामी कार्तिकेय और आचार्य वसुनन्दि प्रमुख होंगे। जो अपने ग्रन्थों में ग्यारह प्रतिमाओं को आधार बनाकर श्रावकधर्म का वर्णन करेंगे।
आचार्य कुन्दकुन्द यद्यपि श्रावकधर्म के प्रतिपादन में कोई स्वतंत्र ग्रंथ नहीं लिखेंगे, फिर भी चारित्रपाहुड़ | में श्रावकधर्म का वर्णन ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर किया जायेगा ।
स्वामी कार्तिकेय भी श्रावकधर्म पर कोई स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं रचेंगे, पर 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में धर्मभावना के अन्तर्गत श्रावकधर्म का सविस्तार वर्णन किया जायेगा । वे भी बहुत स्पष्टरूप से ग्यारह प्रतिमाओं को | ही इसका आधार बनायेंगे। इसके बाद के आचार्य वसुनन्दि भी इन्हीं का अनुसरण करेंगे।
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