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___बाह्य में वस्त्रादि समस्त परिग्रह और अंतरंग में शेष अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि | कषायें छोड़कर वे आत्मध्यान में एकाग्र हो गये। अनन्तानुबंधी क्रोधादि कषायों के अभाव से वे शीतल | तो थे ही, अब अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायों का त्याग कर परम शीतल हो गये। उन्होंने | कषायों की कलुषता को आत्मध्यान द्वारा धो डाला। | तीनरत्न, चार ज्ञान, पाँच महाव्रत तथा छह आवश्यक के धारी परम दिगम्बर मुनिराज शीतलनाथ दो उपवास के पश्चात् तीसरे दिन आहार हेतु अरिष्ट नगरी में पधारे और वहाँ के राजा पुनर्वसु ने नवधाभक्ति से अत्यन्त हर्ष पूर्वक खीर का आहारदान देकर उन्हें पारणा कराया। तीर्थंकर को मुनिदशा में प्रथम आहार | देनेवाले उन राजा के महाभाग्य की देवों ने भी प्रशंसा की। “अहो दान...महादान...कहकर आकाश से पुष्पवृष्टि करके दिव्यवाद्य बजाये।
शीतलनाथ प्रभु ने तीन वर्ष तक मुनिदशा में रहकर आत्मध्यान द्वारा परमात्मपद की साधना की और | अन्त में पौषकृष्णा चतुर्दशी को सायंकाल केवलज्ञान प्रगट करके स्वयं परमात्मा बन गये। देवों तथा मनुष्यों || ने परमात्मपद प्राप्ति का महान उत्सव किया। अरे! तिर्यंच भी उन परमात्मा को देखकर आनन्दित हो उठे। नरक गति के जीवों को भी तीर्थंकर के प्रभाव से दो घड़ी को साता का अनुभव हुआ और आश्चर्यचकित होकर तीर्थंकर की महिमा करके उनमें से कितने ही जीवों ने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया। इसप्रकार शीतलनाथ प्रभु के प्रताप से नरक में भी नारकियों को सम्यक्त्व की अपूर्व शीतलता प्राप्त हुई। धन्य है तीर्थंकरत्व की दिव्यता और धन्य है प्रभु का केवलज्ञानकल्याणक।
देवों ने धर्मसभा के रूप में अद्भुत समोशरण की रचना की और इन्द्र स्वयं आकर प्रभु की पूजा करके धर्मश्रवण करने बैठा। शीतलनाथ भगवान की उस धर्मसभा में इक्यासी गणधर थे, वे सप्तऋद्धि के धारक थे। चौदह सौ श्रुत केवली मुनिवर थे, सात हजार पाँच सौ मन:पर्ययज्ञानी थे। कुल मिलाकर एक लाख मुनिवर मोक्ष की साधना कर रहे थे। उनमें सात हजार तो प्रभु जैसे ही केवलज्ञानी अरहंत थे। वे भी || समोशरण के श्रीमण्डप में पाँच हजार धनुष ऊपर प्रभु के समकक्ष ही विराजते थे।
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