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________________ REE FOR "FF 0 अब देखिये इस घटना के प्रत्यक्षदर्शियों में से एक व्यक्ति तो पड़ोसी के गीत गाते हुए कहता है - || “पड़ोसी हो तो ऐसा हो। यदि वह समय पर व्यवस्था नहीं करता तो बेचारा मर ही जाता।" दूसरा डॉक्टर के गीत गाता है - कहता है - "यदि! ऐसा होशियार डॉक्टर समय पर न मिलता तो वह बेचारा अपने जीवन से ही हाथ धो बैठता।" तीसरा कहता है - "अरे ! यह तो सब ठीक है; परन्तु यदि वह दवाई समय पर उपलब्ध न होती तो बेचारा डॉक्टर भी क्या कर सकता था ? उस बेचारे दुकानदान की कहो, जिसने रात के दो बजे दुकान खोलकर दवा दे दी।" चौथा कहता है - "इन बातों में क्या धरा है ? आयुकर्म ही सर्वत्र बलवान है। यदि आयु ही समाप्त हो गई होती तो धनवंतरी जैसा वैद्य भी नहीं बचा सकता था। ये सब तो निमित्त की बातें हैं। जब जीवनशक्ति ही समाप्त हो जाती है तो सारे के सारे प्रयत्न धरे रह जाते हैं। मौत के आगे किसी का वश नहीं चलता। यदि पड़ोसी, डॉक्टर, मेडिकल स्टोरवाला और दवायें ही बचाती होती तो डॉक्टर आदि ने अपने सगे माँ-बाप एवं प्रिय कुटुम्ब-परिवार को क्यों नहीं बचा लिया? बचा लेते न वे उन्हें !" ___पाँचवें ने कहा - "अरे भाई! चारों व्यक्तियों ने तो केवल अपने-अपने विकल्पों की पूर्ति की है, उन्होंने तो उसके बचाने में कुछ किया ही नहीं, पर आयुकर्म भी अचेतन है, जड़ है, वह भी जीव को जीवनदान देने में समर्थ नहीं है। वह उन चार निमित्तों की तरह ही है। वास्तविक बात तो यह है कि उस मरीज के उपादान की योग्यता ही ऐसी थी कि जिसे-जहाँ जबतक जिन संयोगों में अपनी स्वयं की योग्यता से रहना था, तबतक उन्हीं संयोगों के अनुरूप उसे वहाँ उसी रूप में सब बाह्य कारण-कलाप सहज ही मिलते गये। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में तो कुछ करता ही नहीं, द्रव्यों का समय-समय होनेवाला परिणमन भी स्वतंत्र है। ऐसा ही प्रत्येक वस्तु का स्वभाव है। आयुकर्म का उदय भी एक निमित्त कारण ही है। निमित्त होते तो अवश्य हैं, पर वे कर्ता नहीं हैं। कार्य ||
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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