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________________ ११३) श ला का “शरीर ही मैं हूँ, मेरा लौकिक सुख चिरस्थाई है" इसप्रकार अन्य पदार्थों में जो मेरी विपर्ययबुद्धि हो रही है, उसी से मैं अनेक दुःखमय जन्म- जरा और मृत्यु के चक्कर में पड़कर भवसमुद्र में भ्रमण कर रहा पु हूँ ।" ऐसा विचार कर वे राज्यलक्ष्मी को छोड़ने का विचार करने लगे । रु ष P m F F 405 और मैं इनसे जुदा हूँ; फिर भी आश्चर्य है कि मोहोदय से शरीरादि पदार्थों में इस जीव की आत्मीयता हो रही है।" उ लौकान्तिक देवों ने उनकी पूजा की। उन्होंने सुमति नामक पुत्र को राज्यभार सौंप दिया । इन्द्रों ने उनका दीक्षा कल्याणक मनाया। वे उसीसमय सूर्यप्रभा नामक पालकी में बैठकर पुष्पक वन में गये और मार्गशीष | के शुक्लपक्ष प्रतिपदा के दिन सायंकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हो गये । दीक्षा लेते | ही उन्हें मन:पर्ययज्ञान हो गया। वे दूसरे दिन आहार के लिए शैलपुर नगर में प्रविष्ट हुए। वहाँ पुष्पमित्र राजा | ने उन्हें भोजन कराया । फलस्वरूप पञ्चाश्चर्य प्रगट हुए, इसप्रकार छद्मस्थ अवस्था में तपस्या करते हुए उनके चार वर्ष बीत गये । तदनन्तर कार्तिक शुक्ल द्वितीया के दिन शाम को दो दिन का उपवास लेकर | नागवृक्ष के नीचे स्थित हुए । तत्पश्चात् उसी दीक्षावन में घातिया कर्मों को नष्टकर अनन्त चतुष्टय प्राप्त किये । चतुर्निकाय देवों के इन्द्रों ने उनके अचिन्त्य वैभव की रचना की । समोशरण बनाया और समस्त पदार्थों का एकसाथ निरूपण करनेवाली सातिशय दिव्यध्वनि खिरने लगी। उनकी धर्मसभा में सात ऋद्धियों के धारक अट्ठासी गणधर थे। पन्द्रह सौ श्रुत केवली, एक लाख पचपन हजार पाँच सौ शिक्षक ( उपाध्याय) थे । आठ हजार चार सौ अवधिज्ञानी मुनि, सात हजार केवली, तेरह हजार विक्रिया ऋद्धिधारी, सात हजार पाँच सौ मन:पर्ययज्ञानी और छह हजार छह सौ वादियों के द्वारा भगवान पुष्पदन्त के चरणों की पूजा होती थी । इसप्रकार सब | मिलाकर वे दो लाख मुनियों (गुरुओं) के परमगुरु थे । तीन लाख अस्सी हजार आर्यिकायें, दो लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकायें उनकी धर्मसभा के श्रोता थे । इनके अतिरिक्त असंख्यात देव-देवियाँ और | तिर्यञ्च भी उनके श्रोता थे । भगवान पुष्पदन्त आर्य देश में विहारकर सम्मेदशिखर पहुँचे । ती र्थं क र सु वि धि ना थ पर्व
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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