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| को भरपूर रखती थी। राजा के मंत्रीगण भी प्रसन्न व संतुष्ट रहकर अपने-अपने कार्यों के प्रति जागरूक
| और ईमानदार थे। राजा भी उनके परिवार के सुख-दुःख का बराबर ध्यान रखता था और समय-समय ला पर कुशल क्षेम पूछता रहता था।
जिसप्रकार मुनियों में अनेक गुण वृद्धि को प्राप्त होते हैं, उसीप्रकार उस गुणवान, सदाचारी और शास्त्र मर्मज्ञ राजा में भी अनेक गुण वृद्धिंगत हो रहे थे। उस राजा ने एक दिन अपने वनपाल से सुना कि 'मनोहर नाम के उद्यान में महान ऐश्वर्य धारक भूत नाम के जिनराज स्थित हैं। वह उनकी वंदना के लिए प्रजा एवं दल-बल के साथ गया। वहाँ जिनराज की वन्दना कर तीन प्रदक्षिणा दी और विनयपूर्वक यथास्थान बैठ | गया। वहाँ राजा-प्रजा सभी ने जिनराज का धर्मोपदेश सुना। धर्मोपदेश सुनते ही राजा महाबल को
आत्मज्ञान प्रगट हो गया और वह इसप्रकार विचार करने लगा कि - "अनादिकालीन मिथ्यात्व के उदय से दूषित हुआ यह आत्मा स्वयं अपने ही कारण अपने आत्मा को दुःख में डाले हुए है तथा भूताविष्ट पुरुष की भांति अविचारी हो रहा है। यह प्राणी मिथ्यामान्यता के वश अनादिकाल से स्वयं ही अहितकारी कार्यों में आचरण करता आ रहा है। संसाररूपी अटवी में भटकता हुआ मोक्षमार्ग में भ्रष्ट हो गया है।"
इसप्रकार चिन्तन करता हुआ वह राजा महाबल संसार से भयभीत हो गया। मोक्षमार्ग को प्राप्त करने की इच्छा से 'धनद' नामक अपने पुत्र को राज्यसत्ता सौंपकर संसार से भयभीत हुए अन्य अनेक राजाओं के साथ दीक्षित हो गया। धीरे-धीरे शास्त्राभ्यास करते हुए वह ग्यारह अंग का पारगामी विद्वान हो गया। सोलहकारण भावनाओं के चिन्तन में तत्पर रहने लगा और तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर अन्त में उसने समाधिमरण धारण कर लिया। समाधिमरण के प्रभाव से वह प्राणत स्वर्ग का इन्द्र हुआ। वहाँ बीस सागर की आयु थी। साढ़े तीन हाथ ऊँचा शरीर था, शुक्ल लेश्या थी। दश-दश माह में श्वांस लेता था । बीस हजार वर्ष बाद मानसिक आहार लेता था। उसके मानसिक प्रविचार था, धूमप्रभा पृथ्वी तक उसके अवधिज्ञान की सीमा थी। विक्रिया बल और तेज भी अवधिज्ञान की सीमा के बराबर ही था तथा अणिमा
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