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की नि:स्सारता का विचार करते हुए मुनिराज चन्द्रप्रभ समस्त पदार्थ में माध्यस्थ भाव रखते हुए परमयोग | को प्राप्त हुए।
इसप्रकार जिनकल्प मुद्रा के द्वारा तीन माह बिताकर वे दीक्षावन में बेला का नियम लेकर स्थिर हुए। फाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूपी तीन परिणामों से सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र प्रगट हो गया। उन्होंने पहले शुक्ल ध्यान के प्रभाव से मोहरूपी शत्रु को नष्ट कर दिया, जिससे उनका सम्यग्दर्शन अवगाढ़ सम्यग्दर्शन हो गया।
बारहवें गुणस्थान के अन्त में उन्होंने द्वितीय शुक्लध्यान के प्रभाव से मोहातिरिक्त तीन घातिया कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्रगट कर लिया। उपयोग जीव का मुख्य गुण है; क्योंकि वह जीव के सिवाय अन्य कहीं नहीं पाया जाता। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय जीव के उपयोग का घात करते हैं; इसकारण वे घातिया कर्म कहलाते हैं, भगवान के घातिया कर्मों का नाश हुआ था और अघातिया कर्मों में से भी कुछ प्रकृतियों का नाश हुआ था। इसप्रकार वे परमभावगाढ़ सम्यग्दर्शन, यथाख्यातचारित्र, क्षायिक ज्ञान-दर्शन तथा ज्ञानादि पाँच लब्धियाँ पाकर शरीर सहित सयोग केवली जिनेन्द्र हो गये। वे सर्वज्ञ
और सर्वदर्शी थे और सबके हित में निमित्त होने से हितंकर भी कहलाते थे। उनके चौंतीस अतिशय, आठ प्रातिहार्य थे। वे देवों के देव थे। अपनी प्रभा से उन्होंने समस्त संसार को प्रभावित एवं आनन्दित किया था। भगवान की दिव्यध्वनि में प्रतिसमय सम्पूर्ण द्वादशांग आता है - ऐसा दिव्यध्वनि का सातिशय स्वरूप है। श्रोता के मन में ऐसा प्रश्न उत्पन्न हुआ कि "हे भगवान! इस संसार में कितने ही लोग नास्तिक हैं, परलोक की सत्ता स्वीकृत ही नहीं करते, इसकारण स्वच्छन्द होकर पापाचरणों में प्रवर्तन करते हैं। कितने ही लोग केवल भाग्यवादी हैं, इसकारण पुरुषार्थहीन होकर अकर्मण्य हो रहे हैं। उनका कहना है -
“अजगर करै न चाकरी, पंछी करे न काम । दास मलूका कह गये, सबके दाता राम ।।
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