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________________ १०७ श ला बालक चन्द्रप्रभ का बाल्यकाल देव-देवियों के साथ क्रीड़ा करते हुए बीता था, वे अपने कौमार्य काल | में भी चन्द्रमा के समान कान्ति और सूर्य के सामने तेजवंत थे तथा अतुल्य बलवान थे । वहाँ के लोग | कौतूहल वश परस्पर बातचीत करते हुए कहते थे कि विधाता ने इनका शरीर अमृत से बनाया है । चन्द्रमा की कान्ति को लज्जित करनेवाली उनकी कान्ति है, सूर्य के तेज को फीका कर देनेवाला उनका दिव्यतेज था। उनका शरीर शुक्ल वर्ण का था और भाव भी शुक्ल अर्थात् उज्वल थे । का पु दो लाख पचास हजार पूर्व व्यतीत होने पर उनका राज्याभिषेक किया गया। छह लाख पचास हजार पूर्व तथा चौबीस पूर्वांग का लम्बा समय सुखपूर्वक क्षण के समान ही बीत गया तभी तो यह उक्ति प्रसिद्ध हुई कि सुख का समय बीतते पता नहीं चल पाता और दुःख का एक पल पहाड़-सा लगता है । वे एक दिन आभूषण धारण करके घर में ही दर्पण में अपना मुख कमल देख रहे थे । वहाँ उन्होंने मुख पर कोई वैराग्यप्रेरक चिह्न देखा और वे इसप्रकार विचार करने लगे कि देखो! यह शरीर नश्वर है तथा इससे जो र्द्ध प्रीति की जाती है वह दुःखदाई है । इसप्रकार जिन्होंने आत्मतत्त्व की समझ पूर्वक वैराग्य भावना भायी - ऐसे राजा चन्द्रप्रभ के समीप | लौकान्तिक देव आये और यथायोग्य स्तुति कर ब्रह्म स्वर्ग को वापिस चले गये । तदनन्तर महाराजा चन्द्रप्रभ ने भी वरचन्द नामक पुत्र का राज्याभिषेक किया। तत्पश्चात् देवों द्वारा वैरागी चन्द्रप्रभ के दीक्षाकल्याणक | की पूजा की गई। तत्पश्चात् देवों द्वारा उठाई गई विमला नामक पालकी में सवार होकर वन में गये । यहाँ | उन्होंने दो दिन के उपवास का नियम लिया और वे पौष कृष्णा एकादशी के दिन एक हजार राजाओं के | साथ स्वयं दीक्षित होकर निर्ग्रन्थ मुनि बन गये । दीक्षा लेते ही उन्हें मन:पर्यय ज्ञान प्रगट हो गया । तीसरे दिन वे आहारचर्या के लिए नलिन नामक नगर गये। वहाँ सोमदत्त राजा ने उन्हें आहार दिया, फलस्वरूप रत्नवृष्टि आदि पंच आश्चर्य प्रगट हुए । मतिवान चन्द्रप्रभ २८ मूलगुणों का निर्दोष पालन करते हुए निरन्तर आत्मा की विशुद्धि बढ़ा रहे थे। अंतरंग बहिरंग तपों को धारण कर निरन्तर वस्तु का चिन्तन पर्व करते थे । उत्तम क्षमा आदि दशधर्मों का पालन करते थे। बारह भावनाओं के द्वारा संसार, शरीर और भोगों रु ष pm IF 59 उ त्त रा ती र्थं 이해리 기 न्द्र
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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