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| भी तृप्त नहीं हुआ - ऐसी शोभा थी, तीर्थंकर बाल की। उनके जन्मते ही कुमुदिनियाँ खिल गईं, उसे ही सार्थक करते हुए प्रभु का नाम 'चन्द्रप्रभ' रखा गया।
इन्द्र ने राजमहल में ले जाकर त्रिलोकनाथ चन्द्रप्रभ के सामने आनन्द नामक नाटक प्रदर्शन किया और | ताण्डव नृत्य किया। पश्चात् बालक चन्द्रप्रभ को माता-पिता के लिए सौंप दिया। कुबेर को बालक चन्द्रप्रभ की सेवा में छोड़कर इन्द्रगण अपने-अपने स्थान चले गये।
यद्यपि विद्वान लोग स्त्री पर्याय को निन्द्य बताते हैं, महिलाएँ ऐसा अनुभव करती हैं कि उनके तीनोंपन पराधीनता में ही बीतते हैं। पहले पिता के आधीन, फिर पति के आधीन और अन्त में पुत्र के आधीन, | पर उन्हें अपने अन्दर ऐसी हीन भावना नहीं रखना चाहिए; क्योंकि वे ही महिलायें जब तीर्थंकर तुल्य महा भाग्यवान पुत्रों को जन्म देती हैं तो वे जगत माता बन जाती हैं तथा वस्तुस्वभाव की ओर से देखें तो भगवान आत्मा न पुरुष है, न स्त्री है और न नपुंसक । वह तो लिंगातीत है, फिर हम देह की ओर से अपनी पहचान बनाकर दीनता-हीनता का अनुभव क्यों करें? यदि पुरुष का आत्मा श्रेष्ठ है तो नारी का आत्मा भी किसी से कम नहीं है, धन्य हुई वे माताएँ, जो तीर्थंकर जैसे पुत्रों को जन्म देकर जगत के कल्याण में निमित्त बनीं। देवताओं ने भी इसप्रकार नारी जाति को महान उपकारक जगज्जननी कह उनकी स्तुति की।
भगवान सुपार्श्वनाथ के मुक्त होने के बाद जब नौ सौ करोड़ सागर का अन्तर बीत चुका, तब भगवान चन्द्रप्रभ उत्पन्न हुए। उनकी आयु भी इसी अन्तराल में सम्मिलित है। उनकी आयु दश लाख पूर्व की थी।
तीर्थंकरों के इतने भारी अन्तराल से हमें यह सबक सीखने को मिलता है कि हम कितने सौभाग्यशाली हैं कि भगवान महावीर को मुक्त हुए मात्र साधिक ढाई हजार वर्ष ही हुए हैं और उनकी दिव्यध्वनि का सम्पूर्ण सार हमें आचार्यों द्वारा प्राप्त है। इस अपेक्षा विचार करो तो चौथै काल के जीवों को तीर्थंकरों का कितना भारी अन्तराल झेलना पड़ा। उस लम्बे काल तक जिनवाणी की अविच्छिन्न धारा संभव ही नहीं थी; अत: हमें इस मनुष्य पर्याय में किसी पन्थवाद के पक्षपात में न पड़कर तथा धर्मक्षेत्र में राजनीति की चालबाजियाँ न | चला कर सीधे-सरल ढंग से जिनवाणी के रहस्य को समझ कर अपना मानव जन्म सफल कर लेना चाहिए।